चातुर्मास्य से पूर्व एकादशी व्रत कथा

उत्पन्ना एकादशी कथा - मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष

श्री सूतजी बाले, "हे विप्रों! भगवान श्रीकृष्ण ने विधि सहित इस एकादशी माहात्म्य को अर्जुन से कहा था। प्रभु में जिनकी श्रद्धा है वे ही इस व्रत को प्रेमपूर्वक सुनते हैं तथा इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में वैकुण्ठ को प्राप्त करते हैं। एक बार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, "हे जनार्दन! एकादशी व्रत की क्या महिमा है? इस व्रत को करने से कौन-सा पुण्य मिलता है। इसकी विधि क्या है? सो आप मुझे बताने की कृपा करें।"
अर्जुन के ये वचन सुन भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन! सर्वप्रथम हेमन्त ऋतु के मार्गशीर्ष माह में कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत करना चाहिये। दशमी की सन्ध्या को दातुन करनी चाहिये तथा रात्रि को भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिये। एकादशी को प्रातः संकल्प नियम के अनुसार कार्य करना चाहिये। मध्याह्न को संकल्पपूर्वक स्नान करना चाहिये। स्नान से पूर्व शरीर पर मिट्टी का लेप लगाना चाहिये। स्नानोपरान्त मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाना चाहिये। चन्दन लगाने का मन्त्र इस प्रकार है-

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे,
उद्धृतापि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना।
मृत्तिके हर में पाप यन्मया पूर्वक सञ्चितम्,
त्वचा हतेन पापेन गच्छामि परमां गतिम्॥

स्नानोपरान्त धूप, दीप, नैवेद्य से भगवान की पूजा-अर्चना करनी चाहिये। रात्रि में दीपदान करना चाहिये। ये सभी सात्विक कर्म भक्तिपूर्वक करने चाहिये। रात्रि में जागरण करते हुये श्रीहरि के नाम का जप करना चाहिये तथा किसी भी प्रकार के भोग-विलास या स्त्री-प्रसंग से सर्वथा दूर रहना चाहिये। हृदय में पवित्र एवं सात्विक विचारों को ही स्थान देना चाहिये। इस दिन श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देनी चाहिये तथा उनसे अपने पापों की क्षमा याचना करनी चाहिये। धार्मिकजनों को शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की दोनों एकादशियों को एक समान समझना चाहिये। इनमें भेद-भाव नहीं करना चाहिये। उपरोक्त विधि के अनुसार जो मनुष्य एकादशी का व्रत करते हैं, उनको शंखोद्धार तीर्थ एवं दर्शन करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के पुण्य के सोलहवें भाग के समान भी नहीं है। हे अर्जुन! व्यतीपात योग में, संक्रान्ति में तथा सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण में दान देने से तथा कुरुक्षेत्र में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य मनुष्य को एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है। हे कुन्ती पुत्र! जो फल वेदपाठी ब्राह्मणों को एक सहस्र गोदान करने से प्राप्त होता है, उससे दस गुना अधिक पुण्य एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है। दस श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह एकादशी के पुण्य के दसवें भाग के समान होता है। निर्जला व्रत करने का आधा फल एक समय भोजन करने के समान होता है। अतः एकादशी का व्रत करने पर ही यज्ञ, दान, तप, आदि प्राप्त होते हैं अन्यथा नहीं, अतः एकादशी का व्रत अवश्य ही करना चाहिये। इस एकादशी के व्रत में शंख से जल नहीं पीना चाहिये। माँसाहार तथा अन्य निरामिष आहार का एकादशी के व्रत में सर्वथा निषेध है। एकादशी व्रत का फल सहस्र यज्ञों से भी अधिक है।"
भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुन अर्जुन ने कहा- "हे प्रभु! आपने इस एकादशी व्रत के पुण्यों को अनेक तीर्थों के पुण्य से श्रेष्ठ तथा पवित्र क्यों बतलाया है? कृपा करके यह सब आप विस्तारपूर्वक कहिये।"
श्रीकृष्ण बोले, "हे पार्थ! सतयुग में एक महा भयङ्कर दैत्य हुआ था, उसका नाम मुर था। उस दैत्य ने इन्द्र आदि देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें उनके पद से हटा दिया। तदोपरान्त इन्द्र ने भगवान शंकर से प्रार्थना की, "हे भोलेनाथ! हम सब देवता, मुर दैत्य के अत्याचारों से दुखी होकर मृत्युलोक में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। राक्षसों के भय से हम बहुत दुख और कष्ट भोग रहे हैं। मैं स्वयं बहुत दुखी और भयभीत हूँ, अन्य देवताओं की तो बात ही क्या है, अतः हे कैलाशपति! कृपा कर आप मुर दैत्य के अत्याचार से रक्षा का उपाय बतलाइये।"
देवराज की प्रार्थना सुन शंकरजी ने कहा, "हे देवेन्द्र! आप भगवान श्रीहरि के पास जाईये। मधु-कैटभ का संहार करने वाले भगवान विष्णु देवताओं को अवश्य ही इस भय से मुक्त करेंगे।"
महादेवजी के आदेशानुसार इन्द्र तथा अन्य देवता क्षीर सागर गये, जहाँ पर भगवान श्रीहरि शेष-शैया पर विराजमान थे।
इन्द्र सहित सभी देवताओं ने भगवान विष्णु के समक्ष उपस्थित होकर उनकी स्तुति की, "हे तीनों लोकों के स्वामी! आप स्तुति करने योग्य हैं, हम सभी देवताओं का आपको कोटि-कोटि प्रणाम है। हे दैत्यों के संहारक! हम आपकी शरण में हैं, आप हमारी रक्षा करें। हे त्रिलोकपति! हम सभी देवता दैत्यों के अत्याचारों से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं। इस समय दैत्यों ने हमें स्वर्ग से निकाल दिया है और हम सभी देवता बड़ी ही दयनीय स्थिति में मृत्युलोक में विचरण कर रहे हैं। अब आप ही हमारे रक्षक हैं! रक्षा कीजिये। हे कैलाशपति! हे जगन्नाथ! हमारी रक्षा करें।"
देवताओं की करुण पुकार सुनकर, भगवान श्रीहरि बाले- "हे देवगणो! वह कौन-सा दैत्य है, जिसने देवताओं को जीत लिया है? आप सभी देवगण किसके भय से पृथ्वीलोक में भटक रहे हैं? क्या वह दैत्य इतना बलवान है, जिसने इन्द्र सहित सभी देवताओं को जीत लिया है? तुम निर्भय होकर मुझे सम्पूर्ण वृतान्त बताओ।"
भगवान विष्णु के इन स्नेहमयी वचनों को सुनकर देवेन्द्र ने कहा, "हे प्रभु! प्राचीन काल में ब्रह्मवंश में उत्पन्न हुआ नाड़ी जंगम नाम का एक असुर था, जिसका मुर नामक एक पुत्र है, जो चन्द्रवती नामक नगरी में निवास करता है, जिसने अपने बल से मृत्युलोक एवं देवलोक पर विजय प्राप्त कर ली है तथा सब देवताओं को देवलोक से निकालकर, अपने दैत्य कुल के असुरों को इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण, चन्द्रमा आदि लोकपाल बना दिया है। वह स्वयं सूर्य बनकर पृथ्वी को तापता है तथा स्वयं मेघ बनकर जल की वर्षा करता है, अतः आप इस बलशाली भयानक असुर का संहार करके देवताओं की रक्षा करें।"
देवेन्द्र के मुख से ऐसे वचन सुन भगवान विष्णु बोले, "हे देवताओं! मैं आपके शत्रु का शीघ्र ही संहार करूँगा। आप सब इसी समय मेरे साथ चन्द्रवती नगरी चलिये।"
देवताओं की पुकार पर भगवान विष्णु तुरन्त ही उनके साथ चल दिये। उधर दैत्यराज मुर ने अपने तेज से जान लिया था कि, श्रीविष्णु युद्ध की इच्छा से उसकी राजधानी की ओर आ रहे हैं, अतः अपने राक्षस योद्धाओं के साथ वह भी युद्ध भूमि में आकर गरजने लगा। देखते-ही-देखते युद्ध आरम्भ हो गया। युद्ध आरम्भ होने पर अनगिनत असुर अनेक अस्त्रों-शस्त्रों को धारण कर देवताओं से युद्ध करने लगे, किन्तु देवता तो पहले ही डरे हुये थे, वह अधिक देर तक राक्षसों का सामना न कर सके और भाग खड़े हुये। तब भगवान विष्णु स्वयं युद्ध-भूमि में आ गये। दैत्य पूर्व से भी अधिक उत्साह में भरकर भगवान विष्णु से युद्ध करने लगे। वे अपने अस्त्र-शस्त्रों से उन पर भयङ्कर प्रहार करने लगे। दैत्यों के आक्रमणों को श्रीविष्णु अपने चक्र एवं गदा के प्रहारों से नष्ट करने लगे। इस युद्ध में अनेक दैत्य सदा के लिये मृत्यु की गोद में समा गये, किन्तु दैत्यराज मुर भगवान विष्णु के साथ निश्चल भाव से युद्ध करता रहा। उसका तो जैसे अभी बाल भी बाँका नहीं हुआ था। वह बिना डरे युद्ध कर रहा था। भगवान विष्णु मुर को मारने के लिये जिन-जिन शस्त्रों का प्रयोग करते, वे सब उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगते। अनेक अस्त्रों-शस्त्रों का प्रयोग करने पर भी भगवान विष्णु उससे जीत न सके। तब वे आपस में मल्ल युद्ध करने लगे। भगवान श्रीहरि उस असुर से देवताओं के लिये सहस्र वर्ष तक युद्ध करते रहे, किन्तु उस असुर से विजयी न हो सके। अन्त में भगवान विष्णु शान्त होकर विश्राम करने की इच्छा से बदरिकाश्रम स्थित अड़तीस कोस लम्बी एक द्वार वाली हेमवती नाम की एक गुफा में प्रवेश कर गये।
हे अर्जुन! उस गुफा में प्रभु ने शयन किया। भगवान विष्णु के पीछे-पीछे वह दैत्य भी चला आया था। भगवान श्रीहरि को सोता देखकर वह उन्हें मारने को तैयार हो गया। वह सोच रहा था कि, "मैं आज अपने चिर शत्रु का अन्त करके सदा-सर्वदा के लिये निष्कण्टक हो जाऊँगा", परन्तु उसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी, क्योंकि उसी समय भगवान विष्णु की देह से दिव्य वस्त्र धारण किये एक अत्यन्त मोहिनी कन्या उत्पन्न हुयी और राक्षस को ललकार-कर उससे युद्ध करने लगी।
उस कन्या को देखकर राक्षस को घोर आश्चर्य हुआ और वह विचार करने लगा कि यह ऐसी दिव्य कन्या कहाँ से उत्पन्न हुयी तदोपरान्त वह असुर उस कन्या से निरन्तर युद्ध करता रहा, कुछ समय व्यतीत होने पर उस कन्या ने क्रोध में आकर उस दैत्य के अस्त्र-शस्त्रों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उसका रथ तोड़ डाला। अब तो उस दैत्य को बड़ा ही क्रोध आया और वह सारी मर्यादायें भँग करके उस कन्या से मल्ल युद्ध करने लगा।
उस तेजस्वी कन्या ने उस राक्षस को एक प्रहार से मुर्च्छित कर दिया तथा उसकी मूर्च्छा टूटने से पूर्व ही उसका शीश काटकर धड़ से अलग कर दिया।
शीश कटते ही वह असुर पृथ्वी पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा शेष बचे असुर अपने राजा का ऐसा दुःखद अन्त देखकर भयभीत होकर पाताल लोक में भाग गये। भगवान विष्णु जब निद्रा से जागे तो उस असुर को मरा देखकर उन्हें घोर आश्चर्य हुआ और वे सोचने लगे कि इस महाबली को किसने मारा है?
तब वह तेजस्वी कन्या श्रीहरि से हाथ जोड़कर बोली, "हे जगदीश्वर! यह असुर आपको मारने को उद्यत था, तब मैंने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इस असुर का वध किया है।"
कन्या की वचनों को सुन भगवान विष्णु ने कहा, "तुमने इस असुर का संहार किया है, अतः हे कन्या! मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इस रक्षास का अन्त कर तुमने तीनों लोकों के देवताओं के कष्ट को हरा है, इसीलिये तुम अपनी इच्छानुसार वरदान माँग लो। मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूँगा।"
भगवान विष्णु के वचनों को सुन कन्या बोली, "हे प्रभु! मुझे यह वरदान प्रदान करें कि, जो भी मनुष्य या देव मेरा व्रत करे, उसके सभी पाप नष्ट हो जायें तथा अन्त में उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हो। मेरे व्रत का आधा फल रात्रि को मिले तथा उसका आधा फल एक समय भोजन करने वाले को मिले। जो श्रद्धालु भक्तिपूर्वक मेरे व्रत को करें, वे निश्चय ही वैकुण्ठलोक को प्राप्त करें। जो मनुष्य मेरे व्रत में दिन तथा रात्रि को एक समय भोजन करे, वह धन-धान्य से भरपूर रहे। कृपा करके मुझे ऐसा वरदान दीजिये।"
भगवान श्रीहरि ने कहा, "हे कन्या! ऐसा ही होगा। मेरे और तुम्हारे भक्त एक ही होंगे और अन्त में संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त होकर मेरे लोक को प्राप्त करेंगे। हे कल्याणी! तुम एकादशी को प्रकट हुयी हो, इसीलिये तुम्हारा नाम भी एकादशी हुआ। क्योंकि तुम मेरे अंश से उत्पन्न हुयी हो, इसीलिये संसार मे तुम उत्पन्ना एकादशी के नाम से विख्यात होगी तथा जो मनुष्य इस दिन व्रत करेंगे, उनके समस्त पाप समूल नष्ट हो जायेंगे। तुम मेरे लिये अब तीज, अष्टमी, नवमी तथा चौदस से भी अधिक प्रिय हो। तुम्हारे व्रत का फल सब तीर्थों के फल से भी महान होगा। यह मेरा अकाट्य कथन है।"
इतना कहकर, भगवान श्रीहरि उस स्थान से अन्तर्धान हो गये।"
श्रीकृष्ण ने कहा, "हे पाण्डु पुत्र! एकादशी के व्रत का फल सभी व्रतों व सभी तीर्थों के फल से महान है। एकादशी व्रत करने वाले मनुष्यों के शत्रुओं का मैं जड़ से नाश कर देता हूँ तथा व्रत करने वाले को मोक्ष प्रदान करता हूँ। उन मनुष्यों के जीवन के जो भी कष्ट होते हैं। मैं उन्हें भी नष्ट कर देता हूँ। अर्थात मुझे अत्यन्त प्रिय एकादशी के व्रत को करने वाला प्राणी सभी ओर से निर्भय तथा सुखी होकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है। हे कुन्ती पुत्र! यह मैंने तुम्हें एकादशी की उत्पत्ति के विषय में बतलाया है। एकादशी व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला और सिद्धि प्रदान करने वाला है। श्रेष्ठ मनुष्यों को दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिये। उनमें भेद-भाव करना उचित नहीं है। जो मनुष्य एकादशी माहात्म्य का श्रवण एवं पठन करेंगे, उन्हें अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होगा। यह मेरा अकाट्य वचन है।"

कथा-सार
एकादशी भगवान विष्णु की साक्षात शक्ति है, जिस शक्ति ने उस मुर नामक असुर का वध किया है, जिसे भगवान भी पराजित करने में असमर्थ थे, उस शक्ति के समक्ष मनुष्य के पाप रुपी असुर भला कैसे टिक सकते हैं? जिस शक्ति ने देवताओं के कष्ट को हरकर उन्हें सुख प्रदान किया, वह प्राणिमात्र को क्या नहीं प्रदान कर सकती। अतः देवी एकादशी की कृपा से सुख, समृद्धि, शान्ति तथा मोक्ष समस्त प्रकार के सुख सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

मोक्षदा एकादशी कथा - मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष

अर्जुन ने उत्पन्ना एकादशी की उत्पत्ति, महिमा, माहात्म्य आदि सुनकर श्रीकृष्ण से कहा- "हे परम पूजनीय भगवान श्रीकृष्ण! हे त्रिलोकीनाथ! आप सभी को सुख व मोक्ष देने वाले हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे प्रभु! आप कृपा करने वाले हैं। मेरी एक जिज्ञासा को शांत कीजिए।"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "हे अर्जुन! जो कुछ भी जानना चाहते हो, निर्भय होकर कहो, मैं अवश्य ही तुम्हारी जिज्ञासा को शांत करूंगा।"
"हे प्रभु! यह जो आपने मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के विषय में बताया है, उससे मुझे बड़ी ही शांति प्राप्त हुई। अब कृपा करके मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी पड़ती है उसके विषय में भी बताने की कृपा करें। उसका नाम क्या है? उस दिन कौन-से देवता की पूजा की जाती है और उसकी पूजन विधि क्या है? उसका व्रत करने से मनुष्य को क्या फल मिलता है?प्रभु! मेरे इन प्रश्नों का विस्तार सहित उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा को दूर कीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।"
अर्जुन की जिज्ञासा सुन श्रीकृष्ण बोले- 'हे अर्जुन! तुमने बहुत ही श्रेष्ठ प्रश्न किया है, इसलिए तुम्हारा यश संसार में फैलेगा। मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी अनेक पापों को नष्ट करने वाली है। संसार में इसे मोक्षदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस एकादशी के दिन श्री दामोदर भगवान का धूप, दीप, नैवेद्य आदि से भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए। हे कुंती पुत्र! इस एकादशी व्रत के पुण्य के प्रभाव से नरक में गए हुए माता, पिता, पितरादि को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
इसकी कथा एक पुराण में इस प्रकार है, इसे ध्वानपूर्वक सुनो- वैखानस नाम का एक राजा प्राचीन नगर में राज करता था। उसके राज्य में चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण रहते थे। राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन किया करता था। एक रात्रि को स्वप्न में राजा ने अपने पिता को नरक की यातनाएं भोगते देखा, इस प्रकार का स्वप्न देखकर राजा बड़ा ही व्याकुल हुआ। वह बेचैनी से सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगा। सुबह होते ही उसने ब्राह्मणों को बुलाकर उनके समक्ष अपने स्वप्न की बात बताई- 'हे ब्राह्मणों! रात्रि को स्वप्न में मैंने अपने पिता को नरक की यातनाएं भोगते देखा। उन्होंने मुझसे कहा है कि हे पुत्र! मैं घोर नरक भोग रहा हूँ। मेरी यहां से मुक्ति कराओ। जब से मैंने उनके यह वचन सुने हैं, तब से मुझे चैन नहीं है। मुझे अब राज्य, सुख, ऐश्वर्य, हाथी-घोड़े, धन, स्त्री, पुत्र आदि कुछ भी सुखदायक प्रतीत नहीं हो रहे हैं। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? इस दुःख के कारण मेरा शरीर तप रहा है। आप लोग मुझे किसी प्रकार का तप, दान, व्रत आदि बताएं, जिससे मेरे पिता को मुक्ति प्राप्त हो। यदि मैंने अपने पिता को नरक की यातनाओं से मुक्त कराने के प्रयास नहीं किए तो मेरा जीवन निरर्थक है। जिसके पिता नरक की यातनाएं भोग रहे हों, उस व्यक्ति को इस धरती पर सुख भोगने का कोई अधिकार नहीं है। हे ब्राह्मण देवो। मुझे शीघ्र ही इसका कोई उपाय बताने की कृपा करें।'
राजा के आंतरिक दुख की पीड़ा को सुनकर ब्राह्मणों ने आपस में विचार-विमर्श किया, फिर एकमत होकर बोले- 'राजन! वर्तमान, भूत और भविष्य के ज्ञाता पर्वत नाम के एक मुनि हैं। वे यहां से अधिक दूर नहीं हैं। आप अपनी यह व्यथा उनसे जाकर कहें, वे अवश्य ही इसका कोई सरल उपाय आपको बता देंगे।'
ब्राह्मणों की बात मान राजा मुनि के आश्रम पर गए। आश्रम में अनेक शांतचित्त योगी और मुनि तपस्या कर रहे थे। चारों वेदों के ज्ञाता पर्वत मुनि दूसरे ब्रह्मा के समान बैठे जान पड़ रहे थे। राजा ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया तथा अपना परिचय दिया। पर्वत मुनि ने राजा से कुशलक्षेम पूछी, तब राजा ने बताया- 'हे मुनिवर! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल हैं, किंतु मेरे समक्ष अकस्मात ही एक ऐसी समस्या आ खड़ी हुई, जिससे मेरा हृदय बड़ा ही अशांत हो रहा है।
फिर राजा ने मुनि को व्यथित हृदय से रात में देखे गए स्वप्न की पूरी बात बताई और फिर दुःखी स्वर में बोला- 'हे महर्षि! अब आप कृपा कर मेरा मार्ग दर्शन करें कि ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? कैसे मैं अपने पिता को नरक की यातना से मुक्ति दिलाऊं?'
राजा की बात पर्वत मुनि ने गम्भीरतापूर्वक सुनी, फिर नेत्र बंद कर भूत और भविष्य पर विचार करने लगे। कुछ देर गम्भीरतापूर्वक चिंतन करने के बाद उन्होंने कहा- 'राजन! मैंने अपने योगबल के द्वारा तुम्हारे पिता के सभी कुकर्मों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। उन्होंने पूर्व जन्म में अपनी पत्नियों में भेदभाव किया था। अपनी बड़ी रानी के कहने में आकर उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी को ऋतुदान मांगने पर नहीं दिया था। उसी पाप कर्म के फल से तुम्हारा पिता नरक में गया है।'
यह जानकर वैखानस ने याचना-भरे स्वर में कहा- 'हे ऋषिवर! मेरे पिता के उद्धार का आप कोई उपाय बताने की कृपा करें, किस प्रकार वे इस पाप से मुक्त होंगे?'
इस पर पर्वत मुनि बोले- 'हे राजन! मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी होती है, उसे मोक्षदा एकादशी कहते हैं। यह मोक्ष प्रदान करने वाली है। आप इस मोक्षदा एकादशी का व्रत करें और उस व्रत के पुण्य को संकल्प करके अपने पिता को अर्पित कर दें। एकादशी के पुण्य प्रभाव से अवश्य ही आपके पिता की मुक्ति होगी।'
पर्वत मुनि के वचनों को सुनकर राजा अपने राज्य को लौट आया और परिवार सहित मोक्षदा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। इस व्रत के पुण्य को राजा ने अपने पिता को अर्पित कर दिया। इस पुण्य के प्रभाव से राजा के पिता को सहज ही मुक्ति मिल गई। स्वर्ग को प्रस्थान करते हुए राजा के पिता ने कहा- 'हे पुत्र! तेरा कल्याण हो' इतना कहकर राजा के पिता ने स्वर्ग को प्रस्थान किया। हे पाण्डु पुत्र! जो मनुष्य मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का उपवास करते हैं, उनके सभी, पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में वे स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं। इस उपवास से उत्तम और मोक्ष प्रदान करने वाला कोई भी दूसरा व्रत नहीं है। इस कथा को सुनने व पढ़ने से अनंत फल प्राप्त होता है। यह उपवास मोक्ष प्रदान करने वाला चिंतामणि के समान है। जिससे उपवास करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। हे अर्जुन! प्रत्येक मनुष्य की प्रबल इच्छा होती है कि वह मोक्ष प्राप्त करे। मोक्ष की इच्छा करने वालों के लिए मोक्षदा एकादशी का यह उपवास अति महत्त्वपूर्ण है। पिता के प्रति पुत्र के दायित्व का इस कथा से श्रेष्ठ दृष्टांत दूसरा कोई नहीं है, अतः भगवान श्रीहरि विष्णु के निमित्त यह उपवास पूर्ण निष्ठा व श्रद्धा से करना चाहिए।"

कथा-सार
यह पिता के प्रति भक्ति और दूसरों के लिए पुण्य अर्पित करने की श्रेष्ठ और पवित्र कथा है। इसका उपवास केवल उपवास करने वाले मनुष्य का ही नहीं, अपितु उसके पितरों का भी भला करता है, अपने किसी सगे-सहोदर, मित्र-बंधु को भी इस उपवास का फल अर्पण करने से उसके भी पापों व क्लेशों का नाश हो जाता है।

सफला एकादशी कथा - पौष कृष्ण पक्ष

मोक्षदा एकादशी की व्रत कथा को सुनकर अर्जुन ने प्रसन्न होते हुए कहा- "हे कमलनयन! मोक्षदा एकादशी की व्रत कथा सुनकर मैं धन्य हो गया। हे मधुसूदन! अब आप पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी की महिमा बताने की कृपा करें। उस एकादशी का क्या नाम है, उस दिन किस देवता की पूजा होती है और उसके व्रत का विधान क्या है? मुझ पर कृपा करते हुए यह सब आप मुझे विस्तारपूर्वक बताएं।
अर्जुन की जिज्ञासा सुन श्रीकृष्ण ने कहा- "हे कुंती पुत्र! तुम्हारे प्रेम के कारण मैं तुम्हारे प्रश्नों का विस्तार सहित उत्तर देता हूं। अब तुम इस एकादशी व्रत का माहात्म्य सुनो- हे पार्थ! इस एकादशी के द्वारा भगवान विष्णु को शीघ्र ही प्रसन्न किया जा सकता है। पौष माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम 'सफला' है। इस एकादशी के आराध्य देव नारायण हैं। इस एकादशी के दिन श्रीमन नारायणजी की विधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक पूजा करनी चाहिए। हे पाण्डुनंदन! इसे सत्य जानो कि जिस तरह नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरूड़ ग्रहों में सूर्य-चन्द्र, यज्ञों में अश्वमेध और देवताओं में भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! एकादशी का व्रत करने वाले व्यक्ति भगवान श्रीहरि को अति प्रिय हैं। इस एकादशी में नीबू, नारियल, नैवेद्य आदि अर्पण करके भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए। मनुष्य को पांच सहस्र वर्ष तपस्या करने से जिस पुण्य का फल प्राप्त होता है, वही पुण्य श्रद्धापूर्वक रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी का उपवास करने से मिलता है।
हे कुंती पुत्र! अब तुम सफला एकादशी की कथा ध्यानपूर्वक सुनो-
प्राचीन समय में चम्पावती नगरी में महिष्मान नामक एक राजा राज्य करता था। उसके चार पुत्र थे। उसका सबसे बड़ा लुम्पक नाम का पुत्र महापापी और दुष्ट था
वह हमेशा, पर-स्त्री गमन में तथा वेश्याओं के यहां जाकर अपने पिता का धन व्यय किया करता था। देवता, ब्राह्मण, वैष्णव आदि सुपात्रों की निंदा करके वह अति प्रसन्न होता था। सारी प्रजा उसके कुकर्मों से बहुत दुःखी थी, परंतु युवराज होने के कारण सब चुपचाप उसके अत्याचारों को सहन करने को विवश थे और किसी में भी इतना साहस नहीं था कि कोई राजा से उसकी शिकायत करता, परंतु बुराई अधिक समय तक पर्दे में नहीं रहती। एक दिन राजा महिष्मान को लुम्पक के कुकर्मों का पता चल ही गया। तब राजा अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने लुम्पक को अपने राज्य से निकाल दिया। पिता द्वारा त्यागते ही लुम्पक को और सभी ने भी त्याग दिया। अब वह सोचने लगा कि मैं क्या करूं? कहां जाऊं? अंत में उसने रात्रि को पिता के राज्य में चोरी करने की ठानी।
वह दिन में राज्य से बाहर रहने लगा और रात्रि को अपने पिता की नगरी में जाकर चोरी तथा अन्य बुरे कर्म करने लगा। रात में वह जाकर नगर के निवासियों को मारता तथा कष्ट देता। वन में वह निर्दोष पशु-पक्षियों को मारकर उनका भक्षण किया करता था। किसी-किसी रात जब वह नगर में चोरी आदि करते पकड़ा भी जाता तो राजा के डर से पहरेदार उसे छोड़ देते थे। कहते हैं कि कभी-कभी अनजाने में भी प्राणी ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। ऐसा ही कुछ लुम्पक के साथ भी हुआ। जिस वन में वह रहता था, वह वन भगवान को भी बहुत प्रिय था। उस वन में एक प्राचीन पीपल का वृक्ष था तथा उस वन को सभी लोग देवताओं का क्रीड़ा-स्थल मानते थे। वन में उसी पीपल के वृक्ष के नीचे महापापी लुम्पक रहता था। कुछ दिन बाद पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन वस्त्रहीन होने के कारण लुम्पक तेज ठंड से मूर्च्छित हो गया। ठंड के कारण वह रात को सो न सका और उसके हाथ-पैर अकड़ गए। वह रात बड़ी कठिनता से बीती किंतु सूर्य के उदय होने पर भी उसकी मूर्च्छा नहीं टूटी। वह ज्यों-का-त्यों पड़ा रहा।
सफला एकादशी की दोपहर तक वह पापी मुर्च्छित ही पड़ा रहा। जब सूर्य के तपने से उसे कुछ गर्मी मिली, तब दोपहर में कहीं उसे होश आया और वह अपने स्थान से उठकर किसी प्रकार चलते हुए वन में भोजन की खोज में फिरने लगा। उस दिन वह शिकार करने में असमर्थ था, इसलिए पृथ्वी पर गिरे हुए फलों को लेकर पीपल के वृक्ष के नीचे गया। तब तक भगवान सूर्य अस्ताचल को प्रस्थान कर गए थे। भूखा होने के बाद भी वह उन फलों को न खा सका, क्योंकि कहां तो वह नित्य जीवों को मारकर उनका मांस खाता था और कहां फल। उसे फल खाना तनिक भी अच्छा नहीं लगा, अतः उसने उन फलों को पीपल की जड़ के पास रख दिया और दुःखी होकर बोला - 'हे ईश्वर! यह फल आपको ही अर्पण हैं। इन फलों से आप ही तृप्त हों। ऐसा कहकर वह रोने लगा और रात को उसे नींद नहीं आई। वह सारी रात रोता रहा। इस प्रकार उस पापी से अनजाने में ही एकादशी का उपवास हो गया। उस महापापी के इस उपवास तथा रात्रि जागरण से भगवान श्रीहरि अत्यंत प्रसन्न हुए और उसके सभी पाप नष्ट हो गए। सुबह होते ही एक दिव्य रथ अनेक सुंदर वस्तुओं से सजा हुआ आया और उसके सामने खड़ा हो गया। उसी समय आकाशवाणी हुई - 'हे युवराज! भगवान नारायण के प्रभाव से तेरे सभी पाप नष्ट हो गए हैं, अब तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त कर।'
जब यह आकाशवाणी लुम्पक ने सुनी तो वह अत्यंत प्रसन्न होते हुए बोला - 'हे प्रभु! आपकी जय हो!' ऐसा कहकर उसने सुंदर वस्त्र धारण किए और फिर अपने पिता के पास गया। पिता के पास पहुंचकर उसने सारी कथा पिता को सुनाई। पुत्र के मुख से सारा वृत्तांत सुनने के बाद पिता ने अपना सारा राज्य तत्क्षण ही पुत्र को सौंप दिया और स्वयं वन में चला गया। अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा। उसकी स्त्री, पुत्र आदि भी श्री विष्णु के परम भक्त बन गए। वृद्धावस्था आने पर वह अपने पुत्र को राज्य सौंपकर भगवान का भजन करने के लिए वन में चला गया और अंत में परम पद को प्राप्त हुए। हे पार्थ! जो मनुष्य श्रद्धा व भक्तिपूर्वक इस सफला एकादशी का उपवास करते हैं, उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में मुक्ति प्राप्त होती है। हे अर्जुन! जो मनुष्य इस सफला एकादशी के माहात्म्य को नहीं समझते, उन्हें पूंछ और सींगों से विहीन पशु ही समझना चाहिए। सफला एकादशी के माहात्म्य को पढ़ने अथवा श्रवण करने से प्राणी को राजसूय यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है।"

कथा-सार
यह सफला एकादशी की कथा हमें भगवान के अति कृपालु होने का भान कराती है। यदि कोई मनुष्य अज्ञानवश भी प्रभु का स्मरण करे तो उसे पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। यदि मनुष्य निश्छल भाव से अपने पापों की क्षमा मांगे तो भगवान उसके बड़े-से-बड़े पापों को भी क्षमा कर देते हैं। लुम्पक जैसा महापापी भी भगवान श्रीहरि की कृपा से वैकुंठ का अधिकारी बना।

पुत्रदा एकादशी कथा - पौष शुक्ल पक्ष

श्रीकृष्ण के चरणों में अर्जुन ने प्रणाम कर श्रद्धापूर्वक प्रार्थना की- "हे मधुसूदन! अब आप पौष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के माहात्म्य को बताने की कृपा करें। इस एकादशी का क्या नाम हैं? इसका क्या विधान है! इस दिन किस देवता का पूजन किया जाता है? कृपा कर मेरे इन सभी प्रश्नों का विस्तार सहित उत्तर दें।"
अर्जुन के प्रश्न पर श्रीकृष्ण ने कहा- "हे अर्जुन! पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम पुत्रदा है। इसका पूजन पूर्व में बताई गई विधि अनुसार ही करना चाहिए। इस उपवास में भगवान श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए। संसार में पुत्रदा एकादशी उपवास के समान अन्य दूसरा व्रत नहीं है। इसके पुण्य से प्राणी तपस्वी, विद्वान और धनवान बनता है। इस एकादशी से सम्बंधित जो कथा प्रचलित है, उसे मैं तुम्हें सुनाता हूँ, श्रद्धापूर्वक श्रवण करो-
प्राचीन समय में भद्रावती नगरी में सुकेतुमान नाम का एक राजा राज्य करता था। उसके कोई संतान नहीं थी। उसकी पत्नी का नाम शैव्या था। उस पुत्रहीन राजा के मन में इस बात की बड़ी चिंता थी कि उसके बाद उसे और उसके पूर्वजों को कौन पिंडदान देगा। उसके पितर भी व्यथित हो पिंड लेते थे कि सुकेतुमान के बाद हमें कौन पिंड देगा। इधर राजा भी बंधु-बांधव, राज्य, हाथी, घोड़ा आदि से संतुष्ट नहीं था। उसका एकमात्र कारण पुत्रहीन होना था। बिना पुत्र के पितरों और देवताओं से उऋण नहीं हो सकते। इस तरह राजा रात-दिन इसी चिंता में घुला करता था। इस चिंता के कारण एक दिन वह इतना दुखी हो गया कि उसके मन में अपने शरीर को त्याग देने की इच्छा उत्पन्न हो गई, किंतु वह सोचने लगा कि आत्महत्या करना तो महापाप है, अतः उसने इस विचार को मन से निकाल दिया। एक दिन इन्हीं विचारों में डूबा हुआ वह घोड़े पर सवार होकर वन को चल दिया।
घोड़े पर सवार राजा वन, पक्षियों और वृक्षों को देखने लगा। उसने वन में देखा कि मृग, बाघ, सिंह, बंदर आदि विचरण कर रहे हैं। हाथी शिशुओं और हथिनियों के बीच में विचर रहा है। उस वन में राजा ने देखा कि कहीं तो सियार कर्कश शब्द निकाल रहे हैं और कहीं मोर अपने परिवार के साथ नाच रहे हैं। वन के दृश्यों को देखकर राजा और ज्यादा दुखी हो गया कि उसके पुत्र क्यों नहीं हैं? इसी सोच-विचार में दोपहर हो गई। वह सोचने लगा कि मैंने अनेक यज्ञ किए हैं और ब्राह्मणों को स्वादिष्ट भोजन कराया है, किंतु फिर भी मुझे यह दुख क्यों मिल रहा है? आखिर इसका कारण क्या है? अपनी व्यथा किससे कहूं? कौन मेरी व्यथा का समाधान कर सकता है?
अपने विचारों में खोए राजा को प्यास लगी। वह पानी की तलाश में आगे बढ़ा। कुछ दूर जाने पर उसे एक सरोवर मिला। उस सरोवर में कमल पुष्प खिले हुए थे। सारस, हंस, घड़ियाल आदि जल-क्रीड़ा में मग्न थे। सरोवर के चारों तरफ ऋषियों के आश्रम बने हुए थे। अचानक राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे। इसे शुभ शगुन समझकर राजा मन में प्रसन्न होता हुआ घोड़े से नीचे उतरा और सरोवर के किनारे बैठे हुए ऋषियों को प्रणाम करके उनके सामने बैठ गया।
ऋषिवर बोले - 'हे राजन! हम तुमसे अति प्रसन्न हैं। तुम्हारी जो इच्छा है, हमसे कहो।'
राजा ने प्रश्न किया - 'हे विप्रो! आप कौन हैं? और किसलिए यहां रह रहे हैं?'
ऋषि बोले - 'राजन! आज पुत्र की इच्छा करने वाले को श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करने वाली पुत्रदा एकादशी है। आज से पांच दिन बाद माघ स्नान है और हम सब इस सरोवर में स्नान करने आए हैं।'
ऋषियों की बात सुन राजा ने कहा - 'हे मुनियो! मेरा भी कोई पुत्र नहीं है, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे एक पुत्र का वरदान वीजिए।'
ऋषि बोले - 'हे राजन! आज पुत्रदा एकादशी है। आप इसका उपवास करें। भगवान श्रीहरि की अनुकम्पा से आपके घर अवश्य ही पुत्र होगा।'
राजा ने मुनि के वचनों के अनुसार उस दिन उपवास किया और द्वादशी को व्रत का पारण किया और ऋषियों को प्रणाम करके वापस अपनी नगरी आ गया। भगवान श्रीहरि की कृपा से कुछ दिनों बाद ही रानी ने गर्भ धारण किया और नौ माह के पश्चात उसके एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। यह राजकुमार बड़ा होने पर अत्यंत वीर, धनवान, यशस्वी और प्रजापालक बना।"
श्रीकृष्ण ने कहा- "हे पाण्डुनंदन! पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रदा एकादशी का उपवास करना चाहिए पुत्र प्राप्ति के लिए इससे बढ़कर दूसरा कोई व्रत नहीं है। जो कोई व्यक्ति पुत्रदा एकादशी के माहात्म्य को पढ़ता व श्रवण करता है तथा विधानानुसार इसका उपवास करता है, उसे सर्वगुण सम्पन्न पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है। श्रीहरि की अनुकम्पा से वह मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है।"

कथा-सार
पुत्र का न होना बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है, उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण है पुत्र का कुपुत्र होना, अतः सर्वगुण सम्पन्न और सुपुत्र पाना बड़ा ही दुर्लभ है। ऐसा पुत्र उन्हें ही प्राप्त होता है, जिन्हें साधुजनों का आशीर्वाद प्राप्त हो तथा जिनके मन में भगवान की भक्ति हो। इस कलियुग में सुयोग्य पुत्र प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन पुत्रदा एकादशी का व्रत ही है।

षटतिला एकादशी कथा - माघ कृष्ण पक्ष

भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से एकादशियों का माहात्म्य सुनकर श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम करते हुए अर्जुन ने कहा- "हे केशव! आपके श्रीमुख से एकादशियों की कथाएं सुनकर मुझे असीम आनंद की प्राप्ति हुई है। हे मधुसूदन! कृपा कर अन्य एकादशियों का माहात्म्य सुनाने की भी अनुकम्पा करें।"
"हे अर्जुन! अब मैं माघ मास के कृष्ण पक्ष की षटतिला एकादशी व्रत की कथा सुनाता हूँ-
एक बार दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा - 'हे ऋषि श्रेष्ठ! मनुष्य मृत्युलोक में ब्रह्महत्या आदि महापाप करते हैं और दूसरे के धन की चोरी तथा दूसरे की उन्तति देखकर ईर्ष्या आदि करते हैं, ऐसे महान पाप मनुष्य क्रोध, ईर्ष्या, आवेग और मूर्खतावश करते हैं और बाद में शोक करते हैं कि हाय! यह हमने क्या किया! हे महामुनि! ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाने का क्या उपाय है? कोई ऐसा उपाय बताने की कृपा करें, जिससे ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाया जा सके अर्थात उन्हें नरक की प्राप्ति न हो। ऐसा कौन-सा दान-पुण्य है, जिसके प्रभाव से नरक की यातना से बचा जा सकता है, इन सभी प्रश्नों का हल आप कृपापूर्वक बताइए?'
दालभ्य ऋषि की बात सुन पुलत्स्य ऋषि ने कहा - 'हे मुनि श्रेष्ठ! आपने मुझसे अत्यंत गूढ़ प्रश्न पूछा है। इससे संसार में मनुष्यों का बहुत लाभ होगा। जिस रहस्य को इन्द्र आदि देवता भी नहीं जानते, वह रहस्य मैं आपको अवश्य ही बताऊंगा। माघ मास आने पर मनुष्य को स्नान आदि से शुद्ध रहना चाहिए और इन्द्रियों को वश में करके तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या तथा अहंकार आदि से सर्वथा बचना चाहिए।
पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उपले बनाने चाहिए। इन उपलों से १०८ बार हवन करना चाहिए।
जिस दिन मूल नक्षत्र और एकादशी तिथि हो, तब अच्छे पुण्य देने वाले नियमों को ग्रहण करना चाहिए। स्नानादि नित्य कर्म से देवों के देव भगवान श्रीहरि का पूजन व कीर्तन करना चाहिए।
एकादशी के दिन उपवास करें तथा रात को जागरण और हवन करें। उसके दूसरे दिन धूप, दीप, नैवेद्य से भगवान श्रीहरि की पूजा-अर्चना करें तथा खिचड़ी का भोग लगाएं। उस दिन श्रीविष्णु को पेठा, नारियल, सीताफल या सुपारी सहित अर्घ्य अवश्य देना चाहिए, तदुपरांत उनकी स्तुति करनी चाहिए - 'हे जगदीश्वर! आप निराश्रितों को शरण देने वाले हैं। आप संसार में डूबे हुए का उद्धार करने वाले हैं। हे कमलनयन! हे मधुसूदन! हे जगन्नाथ! हे पुण्डरीकाक्ष! आप लक्ष्मीजी सहित मेरे इस तुच्छ अर्घ्य को स्वीकार कीजिए।' इसके पश्चात ब्राह्मण को जल से भरा घड़ा और तिल दान करने चाहिए। यदि सम्भव हो तो ब्राह्मण को गऊ और तिल दान देना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य जितने तिलों का दान करता है। वह उतने ही सहस्र वर्ष स्वर्ग में वास करता है।
  • तिल स्नान
  • तिल की उबटन
  • तिलोदक
  • तिल का हवन
  • तिल का भोजन
  • तिल का दान
इस प्रकार छः रूपों में तिलों का प्रयोग षटतिला कहलाती है। इससे अनेक प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। इतना कहकर पुलस्त्य ऋषि ने कहा - 'अब मैं एकादशी की कथा सुनाता हूँ-
एक बार नारद मुनि ने भगवान श्रीहरि से षटतिला एकादशी का माहात्म्य पूछा, वे बोले - 'हे प्रभु! आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें। षटतिला एकादशी के उपवास का क्या पुण्य है? उसकी क्या कथा है, कृपा कर मुझसे कहिए।'
नारद की प्रार्थना सुन भगवान श्रीहरि ने कहा - 'हे नारद! मैं तुम्हें प्रत्यक्ष देखा सत्य वृत्तांत सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो-
बहुत पहले मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदा व्रत-उपवास किया करती थी। एक बार वह एक मास तक उपवास करती रही, इससे उसका शरीर बहुत कमजोर हो गया। वह अत्यंत बुद्धिमान थी। फिर उसने कभी भी देवताओं तथा ब्राह्मणों के निमित्त अन्नादि का दान नहीं किया। मैंने चिंतन किया कि इस ब्राह्मणी ने उपवास आदि से अपना शरीर तो पवित्र कर लिया है तथा इसको वैकुंठ लोक भी प्राप्त हो जाएगा, किंतु इसने कभी अन्नदान नहीं किया है, अन्न के बिना जीव की तृप्ति होना कठिन है। ऐसा चिंतन कर मैं मृत्युलोक में गया और उस ब्राह्मणी से अन्न की भिक्षा मांगी। इस पर उस ब्राह्मणी ने कहा-हे योगीराज! आप यहां किसलिए पधारे हैं? मैंने कहा- मुझे भिक्षा चाहिए। इस पर उसने मुझे एक मिट्टी का पिंड दे दिया। मैं उस पिंड को लेकर स्वर्ग लौट आया। कुछ समय व्यतीत होने पर वह ब्राह्मणी शरीर त्यागकर स्वर्ग आई। मिट्टी के पिंड के प्रभाव से उसे उस जगह एक आम वृक्ष सहित घर मिला, किंतु उसने उस घर को अन्य वस्तुओं से खाली पाया। वह घबराई हुई मेरे पास आई और बोली - 'हे प्रभु! मैंने अनेक व्रत आदि से आपका पूजन किया है, किंतु फिर भी मेरा घर वस्तुओं से रिक्त है, इसका क्या कारण है?'
मैंने कहा - 'तुम अपने घर जाओ और जब देव-स्त्रियां तुम्हें देखने आएं, तब तुम उनसे षटतिला एकादशी व्रत का माहात्म्य और उसका विधान पूछना, जब तक वह न बताएं, तब तक द्वार नहीं खोलना।'
प्रभु के ऐसे वचन सुन वह अपने घर गई और जब देव-स्त्रियां आईं और द्वार खोलने के लिए कहने लगीं, तब उस ब्राह्मणी ने कहा - 'यदि आप मुझे देखने आई हैं तो पहले मुझे षटतिला एकादशी का माहात्म्य बताएं।'
तब उनमें से एक देव-स्त्री ने कहा - 'यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो ध्यानपूर्वक श्रवण करो- मैं तुमसे एकादशी व्रत और उसका माहात्म्य विधान सहित कहती हूं।'
जव उस देव-स्त्री ने षटतिला एकादशी का माहात्म्य सुना दिया, तब उस ब्राह्मणी ने द्वार खोल दिया। देव-स्त्रियों ने ब्राह्मणी को सब स्त्रियों से अलग पाया। उस ब्राह्मणी ने भी देव-स्त्रियों के कहे अनुसार षटतिला एकादशी का उपवास किया और उसके प्रभाव से उसका घर धन्य-धान्य से भर गया, अतः हे पार्थ! मनुष्यों को अज्ञान को त्यागकर षटतिला एकादशी का उपवास करना चाहिए। इस एकादशी व्रत के करने वाले को जन्म-जन्म की निरोगता प्राप्त हो जाती है। इस उपवास से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।"

कथा-सार
इस उपवास को करने से जहां हमें शारीरिक पवित्रता और निरोगता प्राप्त होती है, वहीं अन्न, तिल आदि दान करने से धन-धान्य में बढ़ोत्तरी होती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मनुष्य जो-जो और जैसा दान करता है, शरीर त्यागने के बाद उसे फल भी वैसा ही प्राप्त होता है, अतः धार्मिक कृत्यों के साथ-साथ हमें दान आदि अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों में वर्णित है कि बिना दान किए कोई भी धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं होता।

जया एकादशी कथा - माघ शुक्ल पक्ष

गांडीवधारी अर्जुन ने कहा- "हे भगवन्! अब कृपा कर आप मुझे माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के सम्बंध में भी विस्तारपूर्वक बताएं। शुक्ल पक्ष की एकादशी में किस देवता का पूजन करना चाहिए तथा इस एकादशी के व्रत की क्या कथा है, उसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है?"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "हे अर्जुन! माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी कहते हैं। इस एकादशी के उपवास से मनुष्य भूत, प्रेत, पिशाच आदि की योनि से छूट जाता है, अतः इस एकादशी के उपवास को विधि अनुसार करना चाहिए। अब मैं तुमसे जया एकादशी के व्रत की कथा कहता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो- एक बार देवताओं के राजा इन्द्र नंदन वन में भ्रमण कर रहे थे। चारों तरफ किसी उत्सव का-सा माहौल था। गांधर्व गा रहे थे और गंधर्व कन्याएं नृत्य कर रही थीं। वहीं पुष्पवती नामक गंधर्व कन्या ने माल्यवान नामक गंधर्व को देखा और उस पर आसक्त होकर अपने हाव-भाव से उसे रिझाने का प्रयास करने लगी। माल्यवान भी उस गंधर्व कन्या पर आसक्त होकर अपने गायन का सुर-ताल भूल गया। इससे संगीत की लय टूट गई और संगीत का सारा आनंद बिगड़ गया। सभा में उपस्थित देवगणों को यह बहुत बुरा लगा। यह देखकर देवेंद्र भी रूष्ट हो गए। संगीत एक पवित्र साधना है। इस साधना को भ्रष्ट करना पाप है, अतः क्रोधवश इन्द्र ने पुष्पवती तथा माल्यवान को शाप दे दिया - 'संगीत की साधना को अपवित्र करने वाले माल्यवान और पुष्पवती! तुमने देवी सरस्वती का घोर अपमान किया है, अतः तुम्हें मृत्युलोक में जाना होगा। गुरुजनों की सभा में असंयम और लज्जाजनक प्रदर्शन करके तुमने गुरुजनों का भी अपमान किया है, इसलिए इन्द्रलोक में तुम्हारा रहना अब वर्जित है, अब तुम अधम पिशाच असंयमी का-सा जीवन बिताओगे।'
देवेंद्र का शाप सुनकर वे अत्यंत दुखी हुए और हिमालय पर्वत पर पिशाच योनि में दुःखपूर्वक जीवनयापन करने लगे। उन्हें गंध, रस, स्पर्श आदि का तनिक भी बोध नहीं था। वहीं उन्हें असहनीय दुःख सहने पड़ रहे थे। रात-दिन में उन्हें एक क्षण के लिए भी नींद नहीं आती थी। उस स्थान का वातावरण अत्यंत शीतल था, जिसके कारण उनके रोएं खड़े हो जाते थे, हाथ-पैर सुन्न पड़ जाते थे, दांत बजने लगते थे।
एक दिन उस पिशाच ने अपनी स्त्री से कहा - 'न मालूम हमने पिछले जन्म में कौन-से पाप किए हैं, जिसके कारण हमें इतनी दुःखदायी यह पिशाच योनि प्राप्त हुई है? पिशाच योनि से नरक के दुःख सहना कहीं ज्यादा उत्तम है।' इसी प्रकार के अनेक विचारों को कहते हुए अपने दिन व्यतीत करने लगे।
भगवान की कृपा से एक बार माघ के शुक्ल पक्ष की जया एकादशी के दिन इन दोनों ने कुछ भी भोजन नहीं किया और न ही कोई पाप कर्म किया। उस दिन मात्र फल-फूल खाकर ही दिन व्यतीत किया और महान दुःख के साथ पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस दिन सूर्य भगवान अस्ताचल को जा रहे थे। वह रात इन दोनों ने एक-दूसरे से सटकर बड़ी कठिनता से काटी।
दूसरे दिन प्रातः काल होते ही प्रभु की कृपा से इनकी पिशाच योनि से मुक्ति हो गई और पुनः अपनी अत्यंत सुंदर अप्सरा और गंधर्व की देह धारण करके तथा सुंदर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत होकर दोनों स्वर्ग लोक को चले गए। उस समय आकाश में देवगण तथा गंधर्व इनकी स्तुति करने लगे। नागलोक में जाकर इन दोनों ने देवेंद्र को दण्डवत् किया।
देवेंद्र को भी उन्हें उनके रूप में देखकर महान विस्मय हुआ और उन्होंने पूछा - 'तुम्हें पिशाच योनि से किस प्रकार मुक्ति मिली, उसका पूरा वृत्तांत मुझे बताओ।'
देवेंद्र की बात सुन माल्यवान ने कहा - 'हे देवताओं के राजा इन्द्र! श्रीहरि की कृपा तथा जया एकादशी के व्रत के पुण्य से हमें पिशाच योनि से मुक्ति मिली है।'
इन्द्र ने कहा - 'हे माल्यवान! एकादशी व्रत करने से तथा भगवान श्रीहरि की कृपा से तुम लोग पिशाच योनि को छोड़कर पवित्र हो गए हो, इसलिए हम लोगों के लिए भी वंदनीय हो गए हो, क्योंकि शिव तथा विष्णु-भक्त हम देवताओं के वंदना करने योग्य हैं, अतः आप दोनों धन्य हैं। अब आप प्रसन्नतापूर्वक देवलोक में निवास कर सकते हैं।'
हे अर्जुन! इस जया एकादशी के उपवास से कुयोनि से सहज ही मुक्ति मिल जाती है। जो मनुष्य इस एकादशी का व्रत कर लेता है, उसने मानो सभी तप, यज्ञ, दान कर लिए हैं। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक जया एकादशी का व्रत करते हैं, वे अवश्य ही सहस्र वर्ष तक स्वर्ग में वास करते हैं।"

कथा-सार
संगीत देवी सरस्वती का एक अलौकिक वरदान है, यह एक साधना है, एक विद्या है। इसमें पवित्रता आवश्यक है। फिर जिस सभा में अपने से बड़े गुरुजन आदि उपस्थित हों, वहां प्राणी को संयम और मर्यादा को बनाए रखना चाहिए, ताकि गुरुजनों का अपमान न हो, उनका सम्मान बना रहे। गुरुजनों का अपमान करने वाला मनुष्य घोर नरक का भागी है।

विजया एकादशी कथा - फाल्गुन कृष्ण पक्ष

एकादशियों का माहात्म्य सुनने में अर्जुन को अपार हर्ष की अनुभूति हो रही थी। जया एकादशी की कथा का श्रवण रस पाने के बाद अर्जुन ने कहा- "हे पुण्डरीकाक्ष! फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसके व्रत का क्या विधान है? कृपा करके मुझे इसके सम्बन्ध में भी विस्तारपूर्वक बतायें।"
श्रीकृष्ण ने कहा- "हे अर्जुन! फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया है। इसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य को विजयश्री मिलती है। इस विजया एकादशी के माहात्म्य के श्रवण एवं वाचन से सभी पापों का अन्त हो जाता है।"
एक बार देवर्षि नारद ने जगत पिता ब्रह्माजी से कहा- "हे ब्रह्माजी! आप मुझे फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी का व्रत तथा उसकी विधि बताने की कृपा करें।"
नारद की बात सुन ब्रह्माजी ने कहा- "हे पुत्र! विजया एकादशी का उपवास पूर्व के पाप तथा वर्तमान के पापों को नष्ट करने वाला है। इस एकादशी का विधान मैंने आज तक किसी से नहीं कहा परन्तु तुम्हें बताता हूँ, विजया नाम की यह एकादशी उपवास करने वाले सभी मनुष्यों को विजय प्रदान करती है।"
अब श्रद्धापूर्वक कथा का श्रवण करो- श्रीराम को जब चौदह वर्ष का वनवास मिला, तब वह अपने भ्राता लक्ष्मण तथा भार्या देवी सीता सहित पञ्चवटी में निवास करने लगे। उस समय महापापी रावण ने माता सीता का हरण कर लिया।
इस दुःखद घटना से श्रीराम जी तथा लक्ष्मण जी अत्यन्त दुखी हुये और सीता जी की खोज में वन-वन भटकने लगे। वन में भटकते हुये, वे मरणासन्न जटायु के पास जा पहुँचे। जटायु ने उन्हें माता सीता के हरण का पूरा वृत्तान्त सुनाया और भगवान श्रीरामजी की गोद में प्राण त्यागकर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। कुछ आगे चलकर श्रीराम व लक्ष्मण की सुग्रीव जी के साथ मित्रता हो गयी और वहाँ उन्होंने बालि का वध किया।
श्रीराम भक्त हनुमान जी ने लङ्का में जाकर माता सीता का पता लगाया और माता से श्रीराम जी तथा महाराज सुग्रीव की मित्रता का वर्णन सुनाया। वहाँ से लौटकर हनुमान जी श्रीरामचन्द्र जी के पास आये और अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट का सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
सब हाल जानने के बाद श्रीरामचन्द्र जी ने सुग्रीव की सहमति से वानरों तथा भालुओं की सेना सहित लङ्का की तरफ प्रस्थान किया। समुद्र किनारे पहुँचने पर श्रीरामजी ने विशाल समुद्र को घड़ियालों से भरा देखकर लक्ष्मण जी से कहा- "हे लक्ष्मण! अनेक मगरमच्छों और जीवों से भरे इस विशाल समुद्र को कैसे पार करेंगे?"
प्रभु श्रीराम की बात सुनकर लक्ष्मणजी ने कहा- "भ्राताश्री! आप पुराण पुरुषोत्तम आदिपुरुष हैं। आपसे कुछ भी अदृश्य नहीं है। यहाँ से आधा योजन दूर कुमारी द्वीप में वकदाल्भ्य मुनि का आश्रम है। वह अनेक नाम के ब्रह्माओं के ज्ञाता हैं। वह ही आपकी विजय के उपाय बता सकते हैं।"
अपने छोटे भाई लक्ष्मणजी के वचनों को सुन श्रीरामजी वकदाल्भ्य ऋषि के आश्रम में गये और उन्हें प्रणाम कर एक ओर बैठ गये।
अपने आश्रम में श्रीराम को आया देख महर्षि वकदाल्भ्य ने पूछा- "हे श्रीराम! आपने किस प्रयोजन से मेरी कुटिया को पवित्र किया है, कृपा कर अपना प्रयोजन कहें प्रभु!"
मुनि के मधुर वचनों को सुन श्रीरामजी ने कहा- "हे ऋषिवर! मैं सेना सहित यहाँ आया हूँ और राक्षसराज रावण को जीतने की इच्छा से लङ्का जा रहा हूँ। कृपा कर आप समुद्र को पार करने का कोई उपाय बतायें। आपके पास आने का मेरा यही प्रयोजन है।"
महर्षि वकदाल्भ्य ने कहा- "हे राम! मैं आपको एक अति उत्तम व्रत बतलाता हूँ। जिसके करने से आपको विजयश्री अवश्य ही प्राप्त होगी।"
"यह कैसा व्रत है मुनिश्रेष्ठ! जिसे करने से समस्त क्षेत्रों में विजय की प्राप्ति होती है?" जिज्ञासु हो श्रीराम ने पूछा। इस पर महर्षि वकदाल्भ्य ने कहा- "हे श्रीराम! फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी का उपवास करने से आप अवश्य ही समुद्र को पार कर लेंगे और युद्ध में भी आपकी विजय होगी। हे मर्यादा पुरुषोत्तम! इस उपवास के लिये दशमी के दिन स्वर्ण, चाँदी, ताम्बे या मिट्टी का एक कलश बनायें। उस कलश को जल से भरकर तथा उस पर पञ्च पल्लव रखकर उसे वेदिका पर स्थापित करें। उस कलश के नीचे सतनजा अर्थात मिले हुये सात अनाज और ऊपर जौ रखें। उस पर भगवान विष्णु की स्वर्ण की प्रतिमा स्थापित करें। एकादशी के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर धूप, दीप, नैवेद्य, नारियल आदि से भगवान श्रीहरि का पूजन करें। वह सारा दिन भक्तिपूर्वक कलश के सामने व्यतीत करें और रात को भी उसी तरह बैठे रहकर जागरण करें। द्वादशी के दिन नदी या तालाब के किनारे स्नान आदि से निवृत्त होकर वह कलश ब्राह्मण को दे दें। हे दशरथनन्दन! यदि आप इस व्रत को सेनापतियों के साथ करेंगे तो अवश्य ही विजयश्री आपका वरण करेगी।" मुनि के वचन सुन तब श्रीरामचन्द्रजी ने विधिपूर्वक विजया एकादशी का व्रत किया और इसके प्रभाव से राक्षसों के ऊपर विजय प्राप्त की।
"हे अर्जुन! जो मनुष्य इस व्रत को विधि-विधान के साथ पूर्ण करेगा, उसकी दोनों लोकों में विजय होगी। श्री ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था- जो इस व्रत का माहात्म्य श्रवण करता है या पढ़ता है उसे वाजपेय यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है।"

कथा-सार
भगवान विष्णु का किसी भी रूप में पूजन मानव मात्र की समस्त मनोकामनायें पूर्ण करता है। हालाँकि श्रीराम स्वयं विष्णु के अवतार थे, अपितु अपनी लीलाओं के चलते प्राणियों को सद्मार्ग दिखाने के लिये उन्होंने विष्णु भगवान के निमित्त इस व्रत को किया। विजय की इच्छा रखने वाला इस उपवास को करके अनन्त फल का भागी बन सकता है।

आमलकी एकादशी कथा - फाल्गुन शुक्ल पक्ष

अट्ठासी हजार ऋषियों को सम्बोधित करते हुये सूतजी ने कहा, "हे विप्रों! प्राचीन काल की बात है। महान राजा मान्धाता ने वशिष्ठजी से पूछा- हे वशिष्ठ जी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो ऐसे व्रत का विधान बताने की कृपा करें, जिससे मेरा कल्याण हो।"
महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा, "हे राजन! सब व्रतों से उत्तम और अन्त में मोक्ष देने वाला आमलकी एकादशी का व्रत है।"
राजा मान्धाता ने कहा, "हे ऋषिश्रेष्ठ! इस आमलकी एकादशी के व्रत की उत्पत्ति कैसे हुयी? इस व्रत के करने का क्या विधान है? हे वेदों के ज्ञाता! कृपा कर यह सब वृत्तान्त मुझे विस्तारपूर्वक बतायें।"
महर्षि वशिष्ठ ने कहा, "हे राजन! मैं तुम्हारे समक्ष विस्तार से इस व्रत का वृत्तान्त कहता हूँ- यह व्रत फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में होता है। इस व्रत के फल के प्रभाव से सभी पाप समूल नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का पुण्य एक सहस्र गौदान के फल के समान है। आँवले (आमलकी) की महत्ता उसके गुणों के अतिरिक्त इस बात में भी है कि, इसकी उत्पत्ति भगवान विष्णु के श्रीमुख से हुयी है। अब मैं आपको एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ। ध्यानपूर्वक श्रवण करो-
"प्राचीन समय में वैदिक नाम का एक नगर था। उस नगर में ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र, चारों वर्ण के मनुष्य प्रसन्तापूर्वक निवास करते थे। नगर में सदैव वेदध्वनि गूँजा करती थी।
उस नगरी में कोई भी पापी, दुराचारी, नास्तिक आदि न था।
उस नगर में चैत्ररथ नामक चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था। वह उच्चकोटि का विद्वान तथा धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था, उसके राज्य में कोई भी निर्धन एवं लोभी नहीं था। उस राज्य के सभी लोग भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। वहाँ के छोटे-बड़े सभी निवासी प्रत्येक एकादशी का उपवास करते थे।
एक बार फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की आमलकी नामक एकादशी आयी। उस दिन राजा एवं प्रत्येक प्रजाजन, वृद्ध से बालक तक ने आनन्दपूर्वक उस एकादशी को उपवास किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मन्दिर में आकर कलश स्थापित करके तथा धूप, दीप, नैवेद्य, पञ्चरत्न, छत्र आदि से धात्री का पूजन करने लगा। वे सभी धात्री की इस प्रकार स्तुति करने लगे - "हे धात्री! आप ब्रह्म स्वरूपा हैं। आप ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हो तथा सभी पापों को नष्ट करने वाली हैं, आपको नमस्कार है। आप मेरा अर्घ्य स्वीकार करो। आप श्रीरामचन्द्रजी के द्वारा सम्मानित हैं, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, मेरे सभी पापों का हरण करो।"
उस मन्दिर में रात को सभी ने जागरण किया। रात के समय उस स्थान पर एक बहेलिया आया। वह महापापी तथा दुराचारी था।
अपने कुटुम्ब का पालन वह जीव-हिंसा करके करता था। वह भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल था, कुछ भोजन पाने की इच्छा से वह मन्दिर के एक कोने में बैठ गया।
उस स्थान पर बैठकर वह भगवान विष्णु की कथा तथा एकादशी माहात्म्य सुनने लगा। इस प्रकार उस बहेलिये ने सम्पूर्ण रात्रि अन्य लोगों के साथ जागरण कर व्यतीत की। प्रातःकाल सभी लोग अपने-अपने निवास पर चले गये। इसी प्रकार वह बहेलिया भी अपने घर चला गया और वहाँ जाकर भोजन किया।
कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात उस बहेलिये की मृत्यु हो गयी।
हालाँकि, जीव-हिंसा करने के कारण वह घोर नरक का भागी था, परन्तु उस दिन आमलकी एकादशी व्रत तथा जागरण के प्रभाव से उसने राजा विदुरथ के यहाँ जन्म लिया। उसका नाम वसुरथ रखा गया। बड़ा होने पर वह चतुरङ्गिणी सेना सहित तथा धन-धान्य से युक्त होकर दस सहस्र ग्रामों का सञ्चालन करने लगा।
वह तेज में सूर्य के समान, कान्ति में चन्द्रमा के समान, वीरता में भगवान विष्णु के समान तथा क्षमा में पृथ्वी के समान था। वह अत्यन्त धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर और विष्णु-भक्त था। वह प्रजा का समान भाव से पालन करता था। दान देना उसका नित्य का कर्म था।
एक समय राजा वसुरथ शिकार खेलने के लिये गया। दैवयोग से वन में वह रास्ता भटक गया और दिशा का ज्ञान न होने के कारण उसी वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया। कुछ समय पश्चात पहाड़ी डाकू वहाँ आये और राजा को अकेला देखकर 'मारो-मारो' चिल्लाते हुये राजा वसुरथ की ओर दौड़े। वह डाकू कहने लगे कि, "इस दुष्ट राजा ने हमारे माता-पिता, पुत्र-पौत्र आदि समस्त सम्बन्धियों को मारा है तथा देश से निकाल दिया। अब हमें इसे मारकर अपने अपमान का बदला लेना चाहिये।"
इतना कह वे डाकू राजा को मारने लगे और उस पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार करने लगे। डाकुओं के वह अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर से स्पर्श होते ही नष्ट होने लगे तथा राजा को वह शस्त्र पुष्पों के समान प्रतीत होने लगे। कुछ समय पश्चात् प्रभु इच्छा से उन डाकुओं के अस्त्र-शस्त्र उन्हीं पर प्रहार करने लगे, जिससे वे सभी डाकू मूर्च्छित हो गये।
उसी समय राजा के शरीर से एक दिव्य देवी प्रकट हुयी। वह देवी अत्यन्त सुन्दर थी तथा सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलङ्कृत थी। उसकी भृकुटी टेढ़ी थी। उसके नेत्रों से क्रोध की भीषण लपटें निकल रही थीं।
उस समय वे लपटें काल के समान प्रतीत हो रही थीं। उसने देखते-ही-देखते उन सभी डाकुओं का समूल नाश कर दिया।
नींद से उठने पर राजा ने वहाँ अनेक डाकुओं को मृत पड़ा देखा। वह सोचने लगा किसने इन्हें मारा? इस वन में कौन मेरा हितैषी रहता है?
राजा वसुरथ ऐसा विचार कर ही रहा था कि उसी समय आकाशवाणी हुयी - "हे राजन! इस संसार में भगवान विष्णु के अतिरिक्त तेरी रक्षा कौन कर सकता है!"
इस आकाशवाणी को सुनकर राजा ने भगवान विष्णु को स्मरण कर उन्हें प्रणाम किया, तत्पश्चात् अपने नगर को वापस आ गया और सुखपूर्वक राज्य करने लगा।
महर्षि वशिष्ठ ने कहा- "हे राजन! यह सब आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव था, जो मनुष्य एक भी आमलकी एकादशी का व्रत करता है, वह प्रत्येक कार्य में सफल होता है तथा अन्त में वैकुण्ठ धाम को पाता है।"

कथा-सार
भगवान श्रीहरि की शक्ति हमारे सभी कष्टों को हरती है। यह मनुष्य की ही नहीं, अपितु देवताओं की रक्षा में भी पूर्णतया समर्थ है। इसी शक्ति के बल से भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ नाम के राक्षसों का संहार किया था। इसी शक्ति से उत्पन्ना एकादशी के रूप में मुर नामक असुर का वध करके देवताओं के कष्ट को हरकर उन्हें सुखी किया था।

पापमोचनी एकादशी कथा - चैत्र कृष्ण पक्ष

अर्जुन ने कहा, "हे कमलनयन! मैं ज्यों-ज्यों एकादशियों के व्रतों की कथायें सुन रहा हूँ, त्यों-त्यों अन्य एकादशियों के व्रतों की कथायें सुनने की मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है। हे मधुसूदन! अब कृपा करके आप चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के विषय में बतलाइये। इस एकादशी का नाम क्या है? इसमें कौन-से देवता का पूजन किया जाता है तथा इस व्रत का क्या विधान है? हे श्रीकृष्ण! यह सब आप मुझे विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें।"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन! एक बार यही प्रश्न पृथ्वीपति मान्धाता ने लोमश ऋषि से किया था, जो कुछ लोमश ऋषि ने राजा मान्धाता को बताया था, वही मैं तुमसे कह रहा हूँ। राजा मान्धाता ने धर्म के गुह्यतम रहस्यों के ज्ञाता महर्षि लोमश से पूछा, 'हे ऋषिश्रेष्ठ! मनुष्य के पापों का मोचन किस प्रकार सम्भव है? कृपा कर कोई ऐसा सरल उपाय बतायें, जिससे सहज ही पापों से छुटकारा मिल जाये।'
महर्षि लोमश ने कहा, "हे नृपति! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम पापमोचिनी एकादशी है। उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्यों के अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं। मैं तुम्हें इस व्रत की कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो, "प्राचीन समय में चैत्ररथ नामक एक वन था। उसमें अप्सरायें किन्नरों के साथ विहार किया करती थीं। वहाँ सदैव वसन्त का मौसम रहता था, अर्थात उस स्थान पर सदैव नाना प्रकार के पुष्प खिले रहते थे। कभी गन्धर्व कन्यायें विहार किया करती थीं,तो कभी स्वयं देवेन्द्र अन्य देवताओं के साथ क्रीड़ा किया करते थे।
उसी वन में मेधावी नाम के एक ऋषि भी तपस्या में लीन रहते थे। वह भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। एक दिन मञ्जुघोषा नामक एक अप्सरा ने उनको मोहित कर उनकी निकटता का लाभ उठाने की चेष्टा की, इसीलिये वह कुछ दूरी पर बैठ वीणा बजाकर मधुर स्वर में गाने लगी। उसी समय शिव भक्त महर्षि मेधावी को कामदेव भी जीतने का प्रयास करने लगे। कामदेव ने उस सुन्दर अप्सरा के भ्रू का धनुष बनाया। कटाक्ष को उसकी प्रत्यन्चा बनायी और उसके नेत्रों को मञ्जुघोषा अप्सरा का सेनापति बनाया। इस तरह कामदेव अपने शत्रु विजय प्राप्त करने हेतु तैयार थे। उस समय महर्षि मेधावी भी युवावस्था में थे और काफी हृष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने यज्ञोपवीत तथा दण्ड धारण कर रखा था। महर्षि स्वयं दूसरे कामदेव के समान प्रतीत हो रहे थे। उस मुनि को देखकर कामदेव के वश में हुयी मञ्जुघोषा ने धीरे-धीरे मधुर वाणी से वीणा पर गायन आरम्भ किया तो महर्षि मेधावी भी मञ्जुघोषा के मधुर गायन पर तथा उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गये। वह अप्सरा मेधावी मुनि को कामदेव से पीड़ित जानकर उनसे आलिङ्गन करने लगी।
महर्षि मेधावी उस अप्सरा के सौन्दर्य पर मोहित होकर शिव रहस्य को भूल गये तथा काम के वशीभूत होकर उसके साथ रमण करने लगे।
काम के वशीभूत होने के कारण मुनि को उस समय दिन-रात का कुछ भी ज्ञान न रहा तथा अत्यन्त दीर्घ काल तक वे दोनों रमण करते रहे। तदुपरान्त मञ्जुघोषा उस मुनि से बोली- "हे ऋषिवर! अब मुझे बहुत समय हो गया है, अतः स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।"
अप्सरा की बात सुनकर ऋषि ने कहा, "हे मोहिनी! सन्ध्या को तो आयी हो थोड़े समय ठहरो प्रातःकाल होने पर चली जाना।"
ऋषि के ऐसे वचनों को सुनकर अप्सरा उनके साथ रमण करने लगी। इसी प्रकार दोनों ने साथ-साथ बहुत लम्बा समय व्यतीत किया।
मञ्जुघोषा ने एक दिन ऋषि से कहा, "हे विप्र! अब आप मुझे स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।"
मुनि ने पुनः वही कहा, "हे रूपसी! अभी अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ है, कुछ समय और ठहर जाओ।"
मुनि की बात सुन अप्सरा ने कहा, "हे ऋषिवर! आपकी रात्रि तो बहुत लम्बी है। आप स्वयं ही विचार कीजिये कि मुझे आपके पास आये कितना समय व्यतीत हो गया है। अब और अधिक समय तक ठहरना क्या उचित है? "
अप्सरा की बात सुन मुनि को समय का बोध हुआ और वह गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। जब उन्हें समय का ज्ञान हुआ कि, उन्हें रमण करते सत्तावन (57) वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, तो उस अप्सरा को वह काल का रूप समझने लगे। इतना अधिक समय भोग-विलास में व्यर्थ चला जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। अब वह भयङ्कर क्रोध में जलते हुये उस तप नाश करने वाली अप्सरा की तरफ भृकुटी तानकर देखने लगे। क्रोध से उनके अधर कम्पित होने लगे तथा इन्द्रियाँ अनियन्त्रित होने लगीं। क्रोध से थरथराते स्वर में मुनि ने उस अप्सरा से कहा, "मेरे तप को नष्ट करने वाली दुष्टा! तू महा पापिन और बहुत ही दुराचारिणी है, तुझ पर धिक्कार है। तत्क्षण तू मेरे श्राप से पिशाचिनी बन जा।"
मुनि के क्रोधयुक्त श्राप से वह अप्सरा पिशाचिनी बन गयी। यह देख वह व्यथित होकर बोली, "हे ऋषिवर! अब मुझ पर क्रोध त्यागकर प्रसन्न होइये और कृपा करके बताइये कि इस श्राप का निवारण किस प्रकार होगा? विद्वानों ने कहा है, साधुओं की सङ्गत उत्तम फल देने वाली होती है और आपके साथ तो मेरे बहुत वर्ष व्यतीत हुये हैं, अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइये, अन्यथा लोग कहेंगे कि एक पुण्य आत्मा के साथ रहने पर मञ्जुघोषा को पिशाचिनी बनना पड़ा।" मञ्जुघोषा की बात सुनकर मुनि को अपने क्रोध पर अत्यन्त ग्लानि हुयी साथ ही अपनी अपकीर्ति का भय भी हुआ, अतः पिशाचिनी बनी मञ्जुघोषा से मुनि ने कहा, "तूने मेरा बड़ा बुरा किया है, किन्तु फिर भी मैं तुझे इस श्राप से मुक्ति का उपाय बतलाता हूँ। चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम पापमोचिनी है। उस एकादशी का उपवास करने से तेरी पिशाचिनी की देह से मुक्ति हो जायेगी।"
ऐसा कहकर मुनि ने उसको व्रत का सब विधान समझा दिया। तदोपरान्त अपने पापों का प्रायश्चित करने हेतु वह अपने पिता च्यवन ऋषि के पास गये।
च्यवन ऋषि ने अपने पुत्र मेधावी को देखकर कहा, "हे पुत्र! ऐसा क्या किया है तूने कि तेरे सभी तप नष्ट हो गए हैं? जिससे तुम्हारा समस्त तेज मलिन हो गया है?"
मेधावी मुनि ने लज्जा से अपना सिर झुकाकर कहा, "पिताश्री! मैंने एक अप्सरा से रमण करके बहुत बड़ा पाप किया है। इसी पाप के कारण सम्भवतः मेरा सारा तेज और मेरे तप नष्ट हो गये हैं। कृपा करके आप इस पाप से छूटने का उपाय बतलाइये।"
ऋषि ने कहा, "हे पुत्र! तुम चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की पापमोचिनी एकादशी का विधि तथा भक्तिपूर्वक उपवास करो, इससे तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जायेंगे।"
अपने पिता च्यवन ऋषि के वचनों को सुनकर मेधावी मुनि ने पापमोचिनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। उसके प्रभाव से उनके सभी पाप नष्ट हो गये। मञ्जुघोषा अप्सरा भी पापमोचिनी एकादशी का उपवास करने से पिशाचिनी की देह से छूट गयी और पुनः अपना सुन्दर रूप धारण कर स्वर्गलोक चली गयी। लोमश मुनि ने कहा, "हे राजन! इस पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी की कथा के श्रवण व पठन से एक सहस्त्र गौदान करने का फल प्राप्त होता है। इस उपवास के करने से ब्रह्म हत्या, स्वर्ण की चोरी, मद्यपान तथा अगम्या गमन करना आदि भयङ्कर पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अन्त में स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।"

कथा-सार
इस कथा से स्पष्ट विदित है कि, शारीरिक आकर्षण अधिक समय तक नहीं रहता। शारीरिक सौन्दर्य के लोभ में पड़कर मेधावी मुनि अपने तप संकल्प को भूल गये। यह भयङ्कर पाप माना जाता है, परन्तु भगवान श्रीहरि की पापमोचिनी शक्ति इस भयङ्कर पाप कर्म से भी सहज ही मुक्ति दिलाने में सक्षम है। जो मनुष्य सद्कर्मों का संकल्प करने के उपरान्त में लोभ-लालच एवं भोग-विलास के वशीभूत होकर अपने संकल्प को भूल जाते हैं, वे घोर नरक के भागी बनते हैं।

कामदा एकादशी कथा - चैत्र शुक्ल पक्ष

श्रीकृष्ण के प्रिय सखा अर्जुन ने कहा, "हे कमलनयन! मैं आपको कोटि-कोटि नमन करता हूँ। हे जगदीश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपा कर चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी कथा का भी वर्णन सुनाइये। इस एकादशी का क्या नाम है? इस व्रत को पहले किसने किया एवं इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है?"
श्रीकृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन! एक बार यही प्रश्न राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठ से किया था, वह वृत्तान्त मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठ से पूछा, "हे गुरुदेव! चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? उसमें किस देवता का पूजन होता है तथा उसका क्या विधान है? वह आप कृपापूर्वक बताइये।"
मुनि वशिष्ठ ने कहा, "हे राजन! चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम कामदा एकादशी है। यह समस्त पापों को नष्ट करने वाली है। जैसे अग्नि काष्ठ को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही कामदा एकादशी के पुण्य के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होती है। इसके उपवास से मनुष्य निकृष्ट योनि से मुक्त हो जाता है और अन्ततः उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अब मैं इस एकादशी का माहात्म्य सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो- प्राचीन समय में भागीपुर नामक एक नगर था। जिस पर पुण्डरीक नाम का राजा राज्य करता था। राजा पुण्डरीक अनेक ऐश्वर्यों से युक्त था। उसके राज्य में अनेक अप्सरायें, गन्धर्व, किन्नर आदि वास करते थे। उसी नगर में ललित एवं ललिता नाम के गायन विद्या में पारन्गत गन्धर्व स्त्री-पुरुष अति सम्पन्न घर में निवास करते हुये विहार किया करते थे। उन दोनों में इतना प्रेम था कि वे अलग हो जाने की कल्पना मात्र से ही व्यथित हो उठते थे। एक बार राजा पुण्डरीक गन्धर्वों सहित सभा में विराजमान थे। वहाँ गन्धर्वों के साथ ललित भी गायन कर रहा था। उस समय उसकी प्रियतमा ललिता वहाँ उपस्थित नहीं थी। गायन करते-करते अचानक उसे ललिता का स्मरण हो उठा, जिसके कारण वह अशुद्ध गायन करने लगा। नागराज कर्कोटक ने राजा पुण्डरीक से उसकी शिकायत की। इस पर राजा को भयङ्कर क्रोध आया और उन्होंने क्रोधवश ललित को श्राप दे दिया - "अरे नीच! तू मेरे सम्मुख गायन करते हुये भी अपनी स्त्री का स्मरण कर रहा है, इससे तू नरभक्षी दैत्य बनकर अपने कर्म का फल भोग।"
ललित गन्धर्व उसी समय राजा पुण्डरीक के श्राप से एक भयङ्कर दैत्य में परिवर्तित हो गया। उसका मुख विकराल हो गया। उसके नेत्र सूर्य, चन्द्र के समान प्रदीप्त होने लगे। मुँह से आग की भयङ्कर ज्वालायें निकलने लगीं, उसकी नाक पर्वत की कन्दरा के समान विशाल हो गयी तथा गर्दन पहाड़ के समान दिखायी देने लगी। उसकी भुजायें दो-दो योजन लम्बी हो गयीं। इस प्रकार उसका शरीर आठ योजन का हो गया। इस तरह राक्षस बन जाने पर वह अनेक दुःख भोगने लगा। अपने प्रियतम ललित का ऐसा हाल होने पर ललिता अथाह दुःख से व्यथित हो उठी। वह अपने पति के उद्धार के लिए विचार करने लगी कि मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? किस जतन से अपने पति को इस नरक तुल्य कष्ट से मुक्त कराऊँ?
राक्षस बना ललित घोर वनों में रहते हुये अनेक प्रकार के पाप करने लगा। उसकी स्त्री ललिता भी उसके पीछे-पीछे जाती और उसकी स्थिति देखकर विलाप करने लगती।
एक बार वह अपने पति के पीछे-पीछे चलते हुये विन्ध्याचल पर्वत पर पहुँच गयी। उस स्थान पर उसने श्रृंगी मुनि का आश्रम देखा। वह शीघ्रता से उस आश्रम में गयी तथा मुनि के समक्ष पहुँचकर दण्डवत् प्रणाम कर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी, "हे महर्षि! मैं वीरधन्वा नामक गन्धर्व की पुत्री ललिता हूँ, मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से एक भयङ्कर दैत्य बन गया है। उससे मुझे अपार दुःख हो रहा है। अपने पति के कष्ट के कारण मैं बहुत दुखी हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ! कृपा करके आप उसे राक्षस योनि से मुक्ति का कोई उत्तम उपाय बतायें।"
समस्त वृत्तान्त सुनकर मुनि श्रृंगी ने कहा, "हे पुत्री! चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम कामदा एकादशी है। उसके व्रत करने से प्राणी के सभी मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण हो जाते हैं।
यदि तू उसके व्रत के पुण्य को अपने पति को देगी तो वह सहज ही राक्षस योनि से मुक्त हो जायेगा एवं राजा का शाप श्राप शान्त हो जायेगा।"
ऋषि के कहे अनुसार ललिता ने श्रद्धापूर्वक व्रत किया तथा द्वादशी के दिन ब्राह्मणों के समक्ष अपने व्रत का फल अपने पति को दे दिया और ईश्वर से प्रार्थना करने लगी, "हे प्रभु! मैंने जो यह उपवास किया है, उसका फल मेरे पतिदेव को मिले, जिससे उनकी राक्षस योनि से शीघ्र ही मुक्ति हो।"
एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त हो गया और अपने दिव्य स्वरूप को प्राप्त हुआ। वह अनेक सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलङ्कृत होकर पहले की भाँति ललिता के साथ विहार करने लगा।
कामदा एकादशी के प्रभाव से वह पहले की भाँति सुन्दर हो गया तथा मृत्यु के पश्चात् दोनों पुष्पक विमान पर बैठकर विष्णुलोक को चले गये।
हे अर्जुन! इस उपवास को विधानपूर्वक करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत के पुण्य से मनुष्य ब्रह्महत्यादि के पाप तथा राक्षस आदि योनि से मुक्त हो जाते हैं। संसार में इससे उत्तम दूसरा कोई व्रत नहीं है। इसकी कथा व माहात्म्य के श्रवण व पठन से अनन्त फलों की प्राप्ति होती है।

कथा-सार
प्राणी अपने सुखों का चिन्तन करे, यह बुरा नहीं है, किन्तु समय-असमय ऐसा चिन्तन प्राणी को उसके दायित्वों से विमुख कर देता है, जिससे उसे भयङ्कर कष्ट भोगने पड़ते हैं। गन्धर्व ललित ने भी राक्षस होकर निन्दित कर्म किये तथा कष्ट भोगे, परन्तु भगवान श्रीहरि की अनुकम्पा का कोई अन्त नहीं है।


वरूथिनी एकादशी कथा - वैशाख कृष्ण पक्ष

अर्जुन ने कहा, "हे प्रभु! वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसका क्या विधान है और उससे किस फल की प्राप्ति होती है, सो कृपापूर्वक विस्तार से बतायें।"
अर्जुन की बात सुन श्रीकृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन! वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम वरूथिनी एकादशी है। यह सौभाग्य प्रदान करने वाली है। इसका उपवास करने से प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि इस उपवास को दुखी सधवा स्त्री करती है, तो उसे सौभाग्य की प्राप्ति होती है। वरूथिनी एकादशी के प्रभाव से ही राजा मान्धाता को स्वर्ग की प्राप्ति हुयी थी। इसी प्रकार धुन्धुमार आदि भी स्वर्ग को गये थे। वरूथिनी एकादशी के उपवास का फल दस सहस्र वर्ष तपस्या करने के फल के समान है।
कुरुक्षेत्र में सूर्य ग्रहण के समय जो फल एक बार स्वर्ण दान करने से प्राप्त होता है, वही फल वरूथिनी एकादशी का उपवास करने से प्राप्त होता है। इस व्रत से प्राणी इहलोक और परलोक दोनों में सुख पाते हैं व अन्त में स्वर्ग के भागी बनते हैं।
हे राजन! इस एकादशी का उपवास करने से मनुष्य को इहलोक में सुख और परलोक में मुक्ति प्राप्त होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि, घोड़े के दान से हाथी का दान श्रेष्ठ है तथा हाथी के दान से भूमि का दान श्रेष्ठ है, इनमें श्रेष्ठ तिलों का दान है। तिल के दान से श्रेष्ठ है स्वर्ण का दान तथा स्वर्ण के दान से श्रेष्ठ है अन्न-दान। संसार में अन्न-दान से श्रेष्ठ कोई भी दान नहीं है। अन्न-दान से पितृ, देवता, मनुष्य आदि सब तृप्त हो जाते हैं। कन्यादान को शास्त्रों में अन्न-दान के समान माना गया है।
वरूथिनी एकादशी के व्रत से अन्नदान तथा कन्यादान दोनों श्रेष्ठ दानों का फल मिलता है। जो मनुष्य लालचवश कन्या का धन ले लेते हैं या आलस्य और कामचोरी के कारण कन्या के धन का भक्षण करते हैं, वे प्रलय के अन्त तक नरक भोगते रहते हैं या उनको अगले जन्म में बिलाव योनि में जाना पड़ता है।
जो प्राणी प्रेम से तथा यज्ञ सहित कन्यादान करते हैं, उनके पुण्य को चित्रगुप्त भी लिखने में असमर्थ हो जाते हैं। जो प्राणी इस वरूथिनी एकादशी का उपवास करते हैं, उन्हें कन्यादान का फल प्राप्त होता है। वरूथिनी एकादशी का व्रत करने वाले को दशमी के दिन से निम्नलिखित वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिये-काँसे के बर्तन में भोजन करना

  • माँस
  • मसूर की दाल
  • चना
  • कोदों
  • शाक
  • मधु (शहद)
  • दूसरे का अन्न
  • दूसरी बार भोजन करना

व्रती को पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये। रात को सोना नहीं चाहिये, अपितु सारा समय शास्त्र चिन्तन तथा भजन-कीर्तन आदि में लगाना चाहिये। दूसरों की निन्दा तथा नीच पापी लोगों की संगत भी नहीं करनी चाहिये। क्रोध करना या झूठ बोलना भी वर्जित है। तेल तथा अन्न भक्षण की भी मनाही है।
हे राजन! जो मनुष्य इस एकादशी का व्रत विधानपूर्वक करते हैं, उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है, अतः मनुष्य को निकृष्ट कर्मों से भयभीत होना चाहिये। इस व्रत के माहात्म्य को पढ़ने से एक सहस्र गौदान का पुण्य प्राप्त होता है। इसका फल गङ्गा स्नान करने के फल से भी अधिक है।"

कथा-सार
सौभाग्य का आधार संयम है। प्रत्येक परिस्थिति में सभी प्रकार से संयम रखने से मनुष्य के सुख और सौभाग्य में वृद्धि होती है। यदि प्राणी में संयम नहीं है तो उसके द्वारा किये गये तप, त्याग तथा भक्ति-पूजा आदि सभी व्यर्थ हो जाते हैं।

मोहिनी एकादशी कथा - वैशाख शुक्ल पक्ष

अर्जुन ने संयम और श्रद्धा से युक्त कथा को सुनकर श्रीकृष्ण से कहा, "हे मधुसूदन! वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसके उपवास को करने का क्या विधान है? कृपा कर यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बताइये।"
श्रीकृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन! मैं एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ, जिसे महर्षि वशिष्ठ जी ने श्रीरामचन्द्रजी से कहा था। उसे मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो - एक समय की बात है, श्री राम जी ने महर्षि वशिष्ठ से कहा, "हे गुरुश्रेष्ठ! मैंने जनकनन्दिनी सीताजी के वियोग में बहुत कष्ट भोगे हैं, अतः मेरे कष्टों का नाश किस प्रकार होगा? आप मुझे कोई ऐसा व्रत बताने की कृपा करें, जिससे मेरे सभी पाप और कष्ट नष्ट हो जायें।"
महर्षि वशिष्ठ ने कहा, "हे श्रीराम! आपने बहुत उत्तम प्रश्न किया है। आपकी बुद्धि अत्यन्त कुशाग्र और पवित्र है। आपके नाम के स्मरण मात्र से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। आपने लोकहित में यह बड़ा ही उत्तम् प्रश्न किया है। मैं आपको एक एकादशी व्रत का माहात्म्य सुनाता हूँ, वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम मोहिनी एकादशी है। इस एकादशी का उपवास करने से मनुष्य के सभी पाप तथा क्लेश नष्ट हो जाते हैं। इस उपवास के प्रभाव से मनुष्य मोह के जाल से मुक्त हो जाता है। अतः हे राम! दुखी मनुष्य को इस एकादशी का उपवास अवश्य ही करना चाहिये। इस व्रत के करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
अब आप इसकी कथा को श्रद्धापूर्वक सुनिये- प्राचीन समय में सरस्वती नदी के किनारे भद्रावती नाम की एक नगरी बसी हुयी थी। उस नगरी में द्युतिमान नामक राजा राज्य करता था। उसी नगरी में एक वैश्य रहता था, जो धन-धान्य से पूर्ण था। उसका नाम धनपाल था। वह अत्यन्त धर्मात्मा तथा नारायण-भक्त था। उसने नगर में अनेक भोजनालय, प्याऊ, कुएँ, तालाब, धर्मशालायें आदि बनवाये, सड़को के किनारे आम, जामुन, नीम आदि के वृक्ष लगवाये, जिससे पथिकों को सुख मिले। उस वैश्य के पाँच पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़ा पुत्र अत्यन्त पापी व दुष्ट था। वह वेश्याओं और दुष्टों की संगति करता था। इससे जो समय बचता था, उसे वह जुआ खेलने में व्यतीत करता था। वह बड़ा ही अधम था तथा देवता, पितृ आदि किसी को भी नहीं मानता था। अपने पिता का अधिकांश धन वह बुरे व्यसनों में ही उड़ाया करता था। मद्यपान तथा माँसभक्षण करना उसका नित्य कर्म था। जब अत्यधिक समझाने-बुझाने पर भी वह सीधे रास्ते पर नहीं आया तो दुखी होकर उसके पिता, भाइयों तथा कुटुम्बियों ने उसे घर से निकाल दिया और उसकी निन्दा करने लगे। घर से निकलने के पश्चात वह अपने आभूषणों तथा वस्त्रों को बेच-बेचकर अपना जीवन-यापन करने लगा।
धन नष्ट हो जाने पर वेश्याओं तथा उसके दुष्ट साथियों ने भी उसका साथ छोड़ दिया। जब वह भूख-प्यास से व्यथित हो गया तो उसने चोरी करने का विचार किया तथा रात्रि में चोरी करके अपना पेट पालने लगा, किन्तु एक दिन वह पकड़ा गया, परन्तु सिपाहियों ने वैश्य का पुत्र जानकर छोड़ दिया। जब वह दूसरी बार पुनः पकड़ा गया, तब सिपाहियों ने भी उसका कोई लिहाज नहीं किया तथा राजा के सामने प्रस्तुत करके उसे सारी बात बताई। तब राजा ने उसे कारागार में डलवा दिया। कारागार में राजा के आदेश से उसे नाना प्रकार के कष्ट दिये गये तथा अन्त में उसे नगर से निष्कासित करने का आदेश दिया गया। दुखी होकर उसे नगर छोड़ना पड़ा।
अब वह वन में पशु-पक्षियों को मारकर पेट भरने लगा। तदोपरान्त बहेलिया बन गया तथा धनुष-बाण से वन के निरीह जीवों को मार-मारकर खाने एवं बेचने लगा। एक बार वह भूख एवं प्यास से व्याकुल होकर भोजन की खोज में निकला तथा कौण्डिन्य मुनि के आश्रम में जा पहुँचा।
इन दिनों वैशाख का महीना था। कौण्डिन्य मुनि गङ्गा स्नान करके आये थे। उनके भीगे वस्त्रों की छींटें मात्र से इस पापी पर पड़ गयीं, जिसके फलस्वरूप उसे कुछ सद्बुद्धि प्राप्त हुयी। वह अधम, ऋषि के समीप पहुँचकर हाथ जोड़कर कहने लगा, "हे महात्मा! मैंने अपने जीवन में अनेक पाप किये हैं, कृपा कर आप उन पापों से छूटने का कोई साधारण तथा धन रहित उपाय बतलाइये।"
ऋषि ने कहा, "तू ध्यान देकर सुन, वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत कर। इस एकादशी का नाम मोहिनी है। इसका उपवास करने से तेरे सभी पाप नष्ट हो जायेंगे।"
ऋषि के वचनों को सुन वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनकी बतलायी हुयी विधि के अनुसार उसने मोहिनी एकादशी का व्रत किया।
हे श्रीराम! इस व्रत के प्रभाव से उसके सभी पाप नष्ट हो गये तथा अन्त में वह गरुड़ पर सवार हो विष्णुलोक को गया। संसार में इस व्रत से उत्तम दूसरा कोई व्रत नहीं है। इसके माहात्म्य के श्रवण एवं पठन से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य एक सहस्र गौदान के पुण्य के समान है।"

कथा-सार
प्राणी को सदैव सन्तों का संग करना चाहिये। सन्तों की संगत से मनुष्य को न केवल सद्बुद्धि प्राप्त होती है, अपितु उसके जीवन का उद्धार हो जाता है। पापियों की संगत प्राणी को नरक में ले जाती है।

अपरा एकादशी कथा - ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष

अर्जुन ने कहा, "हे प्रभु! ज्येष्ठ माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? तथा उसका माहात्म्य क्या है? इसमें किस देवता का पूजन किया जाता है तथा इस व्रत को करने का क्या विधान है? कृपा कर यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बतायें।"
श्रीकृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन! ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम अपरा है, क्योंकि यह अपार धन एवं पुण्यों को प्रदान करने तथा समस्त पापों का नाश करने वाली है। जो मनुष्य इसका व्रत करते हैं, उनकी लोक में प्रसिद्धि होती है। अपरा एकादशी के व्रत के प्रभाव से ब्रह्महत्या, प्रेत योनि, दूसरे की निन्दा आदि से उत्पन्न पापों का नाश हो जाता है, इतना ही नहीं, स्त्रीगमन, झूठी गवाही, असत्य भाषण, झूठा वेद पढ़ना, झूठा शास्त्र बनाना, ज्योतिष द्वारा किसी को भरमाना, झूठा वैद्य बनकर लोगो को ठगना आदि भयङ्कर पाप भी अपरा एकादशी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं।
युद्धक्षेत्र से भागे हुये क्षत्रिय को नर्क की प्राप्ति होती है, किन्तु अपरा एकादशी का व्रत करने से उसे भी स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।
गुरू से विद्या अर्जित करने के उपरान्त जो शिष्य गुरु की निन्दा करते हैं तो वे अवश्य ही नर्क में जाते हैं। अपरा एकादशी का व्रत करने से इनके लिये स्वर्ग जाना सम्भव हो जाता है।
तीनों पुष्करों में स्नान करने से अथवा कार्तिक माह में स्नान करने से अथवा गङ्गाजी के तट पर पितरों को पिण्डदान करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल अपरा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है।
बृहस्पतिवार के दिन गोमती नदी में स्नान करने से, कुम्भ में श्रीकेदारनाथजी के दर्शन करने से तथा बदरिकाश्रम में निवास करने से तथा सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में स्नान करने से जो फल सिंह राशि वालों को प्राप्त होता है, वह फल अपरा एकादशी के व्रत के समान है। जो फल हाथी-घोड़े के दान से तथा यज्ञ में स्वर्णदान से प्राप्त होता है, वह फल अपरा एकादशी के व्रत के फल के समान है। गौ तथा भूमि या स्वर्ण के दान का फल भी इसके फल के समान होता है।
पापरूपी वृक्षों को काटने के लिये यह व्रत कुल्हाड़ी के समान है तथा पापरूपी अन्धकार के लिये सूर्य के समान है।
अतः मनुष्य को इस एकादशी का व्रत अवश्य ही करना चाहिये। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है। अपरा एकादशी के दिन श्रद्धापूर्वक भगवान श्रीविष्णु का पूजन करना चाहिये। जिससे अन्त में विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।
हे राजन! मैंने यह अपरा एकादशी की कथा लोकहित के लिये कही है। इसके पठन एवं श्रवण से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।"

कथा-सार
अपरा, अर्थात अपार अथवा अतिरिक्त, जो प्राणी एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें भगवान श्रीहरि विष्णु की अतिरिक्त भक्ति प्राप्त होती है। इस कल्याणकारी व्रत के प्रभाव से भक्ति और श्रद्धा में निरन्तर वृद्धि होती है।

निर्जला एकादशी कथा - ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष

शौनक आदि अट्ठासी हजार ऋषि-मुनि बड़ी श्रद्धा से इन एकादशियों की कल्याणकारी व पापनाशक रोचक कथाएँ सुनकर आनन्दमग्न हो रहे थे। अब सबने ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी की कथा सुनने की प्रार्थना की। तब सूतजी ने कहा- महर्षि व्यास से एक बार भीमसेन ने कहा - "हे पितामह! भ्राता युधिष्ठिर, माता कुन्ति, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव आदि एकादशी के दिन व्रत करते हैं और मुझे भी एकादशी के दिन अन्न खाने को मना करते हैं। मैं उनसे कहता हूँ कि भाई, मैं भक्तिपूर्वक भगवान की पूजा कर सकता हूँ और दान दे सकता हूँ, किन्तु मैं भूखा नहीं रह सकता।"
इस पर महर्षि व्यास ने कहा - "हे भीमसेन! वे सही कहते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि एकादशी के दिन अन्न नहीं खाना चाहिये। यदि तुम नरक को बुरा और स्वर्ग को अच्छा समझते हो तो प्रत्येक माह की दोनों एकादशियों को अन्न नहीं खाया करो।
महर्षि व्यास की बात सुन भीमसेन ने कहा - "हे पितामह, मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं एक दिन तो क्या एक समय भी भोजन किये बिना नहीं रह सकता, फिर मेरे लिये पूरे दिन का उपवास करना क्या सम्भव है? मेरे पेट में अग्नि का वास है, जो ज्यादा अन्न खाने पर ही शान्त होती है। यदि मैं प्रयत्न करूँ तो वर्ष में एक एकादशी का व्रत अवश्य कर सकता हूँ, अतः आप मुझे कोई एक ऐसा व्रत बतलाइये, जिसके करने से मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सके।"
भीमसेन की बात सुन व्यासजी ने कहा - "हे पुत्र! बड़े-बड़े ऋषि और महर्षियों ने बहुत-से शास्त्र आदि बनाये हैं। यदि कलियुग में मनुष्य उनका आचरण करे तो अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त होता है। उनमें धन बहुत कम खर्च होता है। उनमें से जो पुराणों का सार है, वह यह है कि मनुष्य को दोनों पक्षों की एकादशियों का व्रत करना चाहिये। इससे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है।"
महर्षि व्यास ने कहा - "हे वायु पुत्र! वृषभ संक्रान्ति और मिथुन संक्रान्ति के बीच में ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी आती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिये। इस एकादशी के व्रत में स्नान और आचमन करते समय यदि मुख में जल चला जाये तो इसका कोई दोष नहीं है, किन्तु आचमन में ६ माशे जल से अधिक जल नहीं लेना चाहिये। इस आचमन से शरीर की शुद्धि हो जाती है। आचमन में ६ माशे से अधिक जल मद्यपान के समान है। इस दिन भोजन नहीं करना चाहिये। भोजन करने से व्रत का नाश हो जाता है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक यदि मनुष्य जलपान न करे तो उससे बारह एकादशियों के फल की प्राप्ति होती है। द्वादशी के दिन सूर्योदय से पहले ही उठना चाहिये। इसके पश्चात भूखे ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये। तत्पश्चात स्वयं भोजन करना चाहिये।
हे भीमसेन! स्वयं भगवान ने मुझसे कहा था कि इस एकादशी का पुण्य सभी तीर्थों और दान के बराबर है। एक दिन निर्जला रहने से मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य निर्जला एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें मृत्यु के समय भयानक यमदूत नहीं दिखाई देते, बल्कि भगवान श्रीहरि के दूत स्वर्ग से आकर उन्हें पुष्पक विमान पर बैठाकर स्वर्ग को ले जाते हैं। संसार में सबसे उत्तम निर्जला एकादशी का व्रत है। अतः यत्नपूर्वक इस एकादशी का निर्जल व्रत करना चाहिये। इस दिन 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय', इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये। इस दिन गौदान करना चाहिये। इस एकादशी को भीमसेनी या पाण्डव एकादशी भी कहते हैं। निर्जल व्रत करने से पहले भगवान का पूजन करना चाहिये और उनसे प्रार्थना करनी चाहिये कि हे प्रभु! आज मैं निर्जल व्रत करता हूँ, इसके दूसरे दिन भोजन करूँगा। मैं इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करूँगा। मेरे सब पाप नष्ट हो जाएं। इस दिन जल से भरा हुआ घड़ा वस्त्र आदि से ढककर स्वर्ण सहित किसी सुपात्र को दान करना चाहिये। इस व्रत के अन्तराल में जो मनुष्य स्नान, तप आदि करते हैं, उन्हें करोड़ पल स्वर्णदान का फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य इस दिन यज्ञ, होम आदि करते हैं, उसके फल का तो वर्णन भी नहीं किया जा सकता। इस निर्जला एकादशी के व्रत के पुण्य से मनुष्य विष्णुलोक को जाता है। जो मनुष्य इस दिन अन्न खाते हैं, उनको चाण्डाल समझना चाहिये। वे अन्त में नरक में जाते हैं। ब्रह्म हत्यारे, मद्यमान करने वाले, चोरी करने वाले, गुरु से ईर्ष्या करने वाले, झूठ बोलने वाले भी इस व्रत को करने से स्वर्ग के भागी बन जाते हैं।
हे अर्जुन! जो पुरुष या स्त्री इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनके निम्नलिखित कर्म हैं, उन्हें सर्वप्रथम विष्णु भगवान का पूजन करना चाहिये। तदुपरान्त गौदान करना चाहिये। इस दिन ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिये। निर्जला के दिन अन्न, वस्त्र, छत्र आदि का दान करना चाहिये। जो मनुष्य इस कथा का प्रेमपूर्वक श्रवण करते हैं तथा पठन करते हैं वे भी स्वर्ग के अधिकारी हो जाते हैं।"

कथा-सार
अपनी कमजोरियों को अपने गुरुजनों व परिवार के बड़ों से कदापि नहीं छुपाना चाहिये। उन पर विश्वास रखते हुए भक्त को चाहिये कि वह अपना कष्ट उन्हें बताये, ताकि वे उसका कोई उचित उपाय कर सकें। उपाय पर श्रद्धा और विश्वासपूर्वक अमल करना चाहिये।

योगिनी एकादशी कथा - आषाढ़ कृष्ण पक्ष

अर्जुन ने कहा- "हे त्रिलोकीनाथ! मैंने ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी की कथा सुनी। अब आप कृपा करके आषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा सुनाइये। इस एकादशी का नाम तथा माहात्म्य क्या है? सो अब मुझे विस्तारपूर्वक बतायें।"
श्रीकृष्ण ने कहा- "हे पाण्डु पुत्र! आषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम योगिनी एकादशी है। इसके व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यह व्रत इहलोक में भोग तथा परलोक में मुक्ति देने वाला है। हे अर्जुन! यह एकादशी तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। इसके व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। तुम्हें मैं पुराण में कही हुई कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो - कुबेर नाम का एक राजा अलकापुरी नाम की नगरी में राज्य करता था। वह शिव-भक्त था। उनका हेममाली नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था। हेममाली की विशालाक्षी नाम की अति सुन्दर स्त्री थी। एक दिन वह मानसरोवर से पुष्प लेकर आया, किन्तु कामासक्त होने के कारण पुष्पों को रखकर अपनी स्त्री के साथ रमण करने लगा। इस भोग-विलास में दोपहर हो गई।
हेममाली की राह देखते-देखते जब राजा कुबेर को दोपहर हो गई तो उसने क्रोधपूर्वक अपने सेवकों को आज्ञा दी कि तुम लोग जाकर पता लगाओ कि हेममाली अभी तक पुष्प लेकर क्यों नहीं आया। जब सेवकों ने उसका पता लगा लिया तो राजा के पास जाकर बताया- 'हे राजन! वह हेममाली अपनी स्त्री के साथ रमण कर रहा है।'
इस बात को सुन राजा कुबेर ने हेममाली को बुलाने की आज्ञा दी। डर से काँपता हुआ हेममाली राजा के सामने उपस्थित हुआ। उसे देखकर कुबेर को अत्यन्त क्रोध आया और उसके होंठ फड़फड़ाने लगे।
राजा ने कहा- 'अरे अधम! तूने मेरे परम पूजनीय देवों के भी देव भगवान शिवजी का अपमान किया है। मैं तुझे शाप (श्राप) देता हूँ कि तू स्त्री के वियोग में तड़पे और मृत्युलोक में जाकर कोढ़ी का जीवन व्यतीत करे।'
कुबेर के शाप (श्राप) से वह तत्क्षण स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गिरा और कोढ़ी हो गया। उसकी स्त्री भी उससे बिछड़ गई। मृत्युलोक में आकर उसने अनेक भयंकर कष्ट भोगे, किन्तु शिव की कृपा से उसकी बुद्धि मलिन न हुई और उसे पूर्व जन्म की भी सुध रही। अनेक कष्टों को भोगता हुआ तथा अपने पूर्व जन्म के कुकर्मो को याद करता हुआ वह हिमालय पर्वत की तरफ चल पड़ा।
चलते-चलते वह मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में जा पहुँचा। वह ऋषि अत्यन्त वृद्ध तपस्वी थे। वह दूसरे ब्रह्मा के समान प्रतीत हो रहे थे और उनका वह आश्रम ब्रह्मा की सभा के समान शोभा दे रहा था। ऋषि को देखकर हेममाली वहाँ गया और उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों में गिर पड़ा।
हेममाली को देखकर मार्कण्डेय ऋषि ने कहा- 'तूने कौन-से निकृष्ट कर्म किये हैं, जिससे तू कोढ़ी हुआ और भयानक कष्ट भोग रहा है।'
महर्षि की बात सुनकर हेममाली बोला- 'हे मुनिश्रेष्ठ! मैं राजा कुबेर का अनुचर था। मेरा नाम हेममाली है। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा और दोपहर तक पुष्प न पहुँचा सका। तब उन्होंने मुझे शाप (श्राप) दिया कि तू अपनी स्त्री का वियोग और मृत्युलोक में जाकर कोढ़ी बनकर दुख भोग। इस कारण मैं कोढ़ी हो गया हूँ तथा पृथ्वी पर आकर भयंकर कष्ट भोग रहा हूँ, अतः कृपा करके आप कोई ऐसा उपाय बतलाये, जिससे मेरी मुक्ति हो।'
मार्कण्डेय ऋषि ने कहा- 'हे हेममाली! तूने मेरे सम्मुख सत्य वचन कहे हैं, इसलिए मैं तेरे उद्धार के लिए एक व्रत बताता हूँ। यदि तू आषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की योगिनी नामक एकादशी का विधानपूर्वक व्रत करेगा तो तेरे सभी पाप नष्ट हो जाएँगे।'
महर्षि के वचन सुन हेममाली अति प्रसन्न हुआ और उनके वचनों के अनुसार योगिनी एकादशी का विधानपूर्वक व्रत करने लगा। इस व्रत के प्रभाव से अपने पुराने स्वरूप में आ गया और अपनी स्त्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।
हे राजन! इस योगिनी एकादशी की कथा का फल अट्ठासी सहस्र ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर है। इसके व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त में मोक्ष प्राप्त करके प्राणी स्वर्ग का अधिकारी बनता है।"

कथा-सार
मनुष्य को पूजा आदि धर्म में आलस्य या प्रमाद नहीं करना चाहिए, अपितु मन को संयम में रखकर सदैव भगवान की सेवा में तत्पर रहना चाहिए।

देवशयनी एकादशी कथा - आषाढ़ शुक्ल पक्ष

अर्जुन ने कहा- "हे श्रीकृष्ण! आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या व्रत है? उस दिन किस देवता का पूजन होता है? उसका क्या विधान है? कृपा कर यह सब विस्तारपूर्वक बतायें।"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "हे धनुर्धर! एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से यही प्रश्न पूछा था। तब ब्रह्माजी ने कहा कि नारद! तुमने कलियुग में प्राणिमात्र के उद्धार के लिए सबसे श्रेष्ठ प्रश्न पूछा है, क्योंकि एकादशी का व्रत सब व्रतों में उत्तम होता है। इसके व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी का नाम देवशयनी एकादशी है। यह व्रत करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। इस सम्बन्ध में मैं तुम्हें एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो- मान्धाता नाम का एक सूर्यवंशी राजा था। वह सत्यवादी, महान तपस्वी और चक्रवर्ती था। वह अपनी प्रजा का पालन सन्तान की तरह करता था। उसकी सारी प्रजा धन-धान्य से परिपूर्ण थी और सुखपूर्वक जीवन-यापन कर रही थी। उसके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता था। कभी किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा नहीं आती थी, परन्तु न जाने उससे देव क्यों रूष्ट हो गये। न मालूम राजा से क्या भूल हो गई कि एक बार उसके राज्य में जबरदस्त अकाल पड़ गया और प्रजा अन्न की कमी के कारण अत्यन्त दुखी रहने लगी। राज्य में यज्ञ होने बन्द हो गए। अकाल से पीड़ित प्रजा एक दिन दुखी होकर राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी- 'हे राजन! समस्त संसार की सृष्टि का मुख्य आधार वर्षा है। इसी वर्षा के अभाव से राज्य में अकाल पड़ गया है और अकाल से प्रजा मर रही है। हे भूपति! आप कोई ऐसा जतन कीजिये, जिससे हम लोगों का कष्ट दूर हो सके। यदि जल्द ही अकाल से मुक्ति न मिली तो विवश होकर प्रजा को किसी दूसरे राज्य में शरण लेनी पड़ेगी।'
प्रजाजनों की बात सुन राजा ने कहा- 'आप लोग सत्य कह रहे हैं। वर्षा न होने से आप लोग बहुत दुखी हैं। राजा के पापों के कारण ही प्रजा को कष्ट भोगना पड़ता है। मैं बहुत सोच-विचार कर रहा हूँ, फिर भी मुझे अपना कोई दोष दिखलाई नहीं दे रहा है। आप लोगों के कष्ट को दूर करने के लिए मैं बहुत उपाय कर रहा हूँ, परन्तु आप चिन्तित न हों, मैं इसका कोई-न-कोई उपाय अवश्य ही करूँगा।'
राजा के वचनों को सुन प्रजाजन चले गये। राजा मान्धाता भगवान की पूजा कर कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को साथ लेकर वन को चल दिया। वहाँ वह ऋषि-मुनियों के आश्रमों में घूमते-घूमते अन्त में ब्रह्मा जी के मानस पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम पर पहुँच गया। रथ से उतरकर राजा आश्रम में चला गया। वहाँ ऋषि अभी नित्य कर्म से निवृत्त ही हुए थे कि राजा ने उनके सम्मुख पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया। ऋषि ने राजा को आशीर्वाद दिया, फिर पूछा- 'हे राजन! आप इस स्थान पर किस प्रयोजन से पधारे हैं, सो कहिये।'
राजा ने कहा- 'हे महर्षि! मेरे राज्य में तीन वर्ष से वर्षा नहीं हो रही है। इससे अकाल पड़ गया है और प्रजा कष्ट भोग रही है। राजा के पापों के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट मिलता है, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। मैं धर्मानुसार राज्य करता हूँ, फिर यह अकाल कैसे पड़ गया, इसका मुझे अभी तक पता नहीं लग सका। अब मैं आपके पास इसी सन्देह की निवृत्ति के लिए आया हूँ। आप कृपा कर मेरी इस समस्या का निवारण कर मेरी प्रजा के कष्ट को दूर करने के लिए कोई उपाय बतलाइये।'
सब वृत्तान्त सुनने के बाद ऋषि ने कहा- 'हे नृपति! इस सतयुग में धर्म के चारों चरण सम्मिलित हैं। यह युग सभी युगों में उत्तम है। इस युग में केवल ब्राह्मणों को ही तप करने तथा वेद पढ़ने का अधिकार है, किन्तु आपके राज्य में एक शूद्र तप कर रहा है। इसी दोष के कारण आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। यदि आप प्रजा का कल्याण चाहते हैं तो शीघ्र ही उस शूद्र का वध करवा दें। जब तक आप यह कार्य नहीं कर लेते, तब तक आपका राज्य अकाल की पीड़ा से कभी मुक्त नहीं हो सकता।'
ऋषि के वचन सुन राजा ने कहा- 'हे मुनिश्रेष्ठ! मैं उस निरपराध तप करने वाले शूद्र को नहीं मार सकता। किसी निर्दोष मनुष्य की हत्या करना मेरे नियमों के विरुद्ध है और मेरी आत्मा इसे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करेगी। आप इस दोष से मुक्ति का कोई दूसरा उपाय बतलाइये।'
राजा को विचलित जान ऋषि ने कहा- 'हे राजन! यदि आप ऐसा ही चाहते हो तो आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की देवशयनी नाम की एकादशी का विधानपूर्वक व्रत करो। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी और प्रजा भी पूर्व की भाँति सुखी हो जाएगी, क्योंकि इस एकादशी का व्रत सिद्धियों को देने वाला है और कष्टों से मुक्त करने वाला है।'
ऋषि के इन वचनों को सुनकर राजा अपने नगर वापस आ गया और विधानपूर्वक देवशयनी एकादशी का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से राज्य में अच्छी वर्षा हुई और प्रजा को अकाल से मुक्ति मिली।
इस एकादशी को पद्मा एकादशी भी कहते हैं। इस व्रत के करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं, अतः मोक्ष की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को इस एकादशी का व्रत करना चाहिए। चातुर्मास्य व्रत भी इसी एकादशी के व्रत से आरम्भ किया जाता है।"

कथा-सार
अपने कष्टों से मुक्ति पाने के लिए किसी दूसरे का बुरा नहीं करना चाहिए। अपनी शक्ति से और भगवान पर पूरी श्रद्धा और आस्था रखकर सन्तों के कथनानुसार सत्कर्म करने से बड़े-बड़े कष्टों से सहज ही मुक्ति मिल जाती है।

Thanks for your valuable time.