साप्ताहिक व्रत कथा - हिंदी

रविवार व्रत कथा

प्राचीन काल में एक बुढ़िया रहती थी। वह नियमित रूप से रविवार का व्रत करती थी। रविवार के दिन सूर्योदय से पहले उठकर बुढ़िया स्नानादि से निवृत्त होकर अपने आंगन को गोबर से लीपकर स्वच्छ करती थी, उसके बाद सूर्य भगवान की पूजा करते हुए रविवार व्रत कथा सुनकर सूर्य भगवान का भोग लगाकर दिन में एक समय भोजन करती थी। सूर्य भगवान की अनुकंपा से बुढ़िया को किसी प्रकार की चिंता एवं कष्ट नहीं था। धीरे-धीरे उसका घर धन-धान्य से भर रहा था।
उस बुढ़िया को सुखी होते देख उसकी पड़ोसन उससे जलने लगी। बुढ़िया ने कोई गाय नहीं पाल रखी थी। अतः वह अपनी पड़ोसन के आंगन में बंधी गाय का गोबर ले आती थी। पड़ोसन ने कुछ सोचकर अपनी गाय को घर के भीतर बांध दिया। रविवार को गोबर न मिलने से बुढ़िया अपना आंगन नहीं लीप सकी। आंगन न लीप पाने के कारण उस बुढ़िया ने सूर्य भगवान को भोग नहीं लगाया और उस दिन स्वयं भी भोजन नहीं किया। सूर्यास्त होने पर बुढ़िया भूखी-प्यासी सो गई।


प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उस बुढ़िया की आंख खुली तो वह अपने घर के आंगन में सुंदर गाय और बछड़े को देखकर हैरान हो गई। गाय को आंगन में बांधकर उसने जल्दी से उसे चारा लाकर खिलाया। पड़ोसन ने उस बुढ़िया के आंगन में बंधी सुंदर गाय और बछड़े को देखा तो वह उससे और अधिक ईर्ष्‍या करने लगी। तभी गाय ने सोने का गोबर किया। गोबर को देखते ही पड़ोसन की आंखें फट गईं।
पड़ोसन ने उस बुढ़िया को आसपास न पाकर तुरंत उस गोबर को उठाया और अपने घर ले गई तथा अपनी गाय का गोबर वहां रख आई। सोने के गोबर से पड़ोसन कुछ ही दिनों में धनवान हो गई। गाय प्रति दिन सूर्योदय से पूर्व सोने का गोबर किया करती थी और बुढ़िया के उठने के पहले पड़ोसन उस गोबर को उठाकर ले जाती थी।
बहुत दिनों तक बुढ़िया को सोने के गोबर के बारे में कुछ पता ही नहीं चला। बुढ़िया पहले की तरह हर रविवार को भगवान सूर्यदेव का व्रत करती रही और कथा सुनती रही। लेकिन सूर्य भगवान को जब पड़ोसन की चालाकी का पता चला तो उन्होंने तेज आंधी चलाई। आंधी का प्रकोप देखकर बुढ़िया ने गाय को घर के भीतर बांध दिया। सुबह उठकर बुढ़िया ने सोने का गोबर देखा उसे बहुत आश्चर्य हुआ।
उस दिन के बाद बुढ़िया गाय को घर के भीतर बांधने लगी। सोने के गोबर से बुढ़िया कुछ ही दिन में बहुत धनी हो गई। उस बुढ़िया के धनी होने से पड़ोसन बुरी तरह जल-भुनकर राख हो गई और उसने अपने पति को समझा-बुझाकर उसे नगर के राजा के पास भेज दिया। सुन्‍दर गाय को देखकर राजा बहुत खुश हुआ। सुबह जब राजा ने सोने का गोबर देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
उधर सूर्य भगवान को भूखी-प्यासी बुढ़िया को इस तरह प्रार्थना करते देख उस पर बहुत करुणा आई। उसी रात सूर्य भगवान ने राजा को स्वप्न में कहा, राजन, बुढ़िया की गाय व बछड़ा तुरंत लौटा दो, नहीं तो तुम पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ेगा। तुम्हारा राज-पाट नष्ट हो जाएगा। सूर्य भगवान के स्वप्न से बुरी तरह भयभीत राजा ने प्रातः उठते ही अपने मंत्रियों से मंत्रणा करके गाय और बछड़ा बुढ़िया को लौटा दिया।
राजा ने बहुत-सा धन देकर बुढ़िया से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। राजा ने पड़ोसन और उसके पति को उनकी इस दुष्टता के लिए दंड दिया। फिर राजा ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि सभी स्त्री-पुरुष रविवार का व्रत किया करें। रविवार का व्रत करने से सभी लोगों के घर धन-धान्य से भर गए, राज्‍य में चारों ओर खुशहाली छा गयी। स्त्री-पुरुष सुखी जीवन यापन करने लगे तथा सभी लोगों के शारीरिक कष्ट भी दूर हो गए।

सोमवार व्रत कथा (Somvar vrat katha)

एक बार शिवजी और माता पार्वती मृत्यु लोक पर घूम रहे थे। घूमते घूमते वो विदर्भ देश के अमरावती नामक नगर में आए। उस नगर में एक सुंदर शिव मंदिर था इसलिए महादेवजी पार्वतीजी के साथ वहां रहने लग गए। एक दिन बातों बातों में पार्वतीजी ने शिवजी को चौसर खेलने को कहा। शिवजी राजी हो गए और चौसर खेलने लग गए।
उसी समय मंदिर का पुजारी दैनिक आरती के लिए आया पार्वती ने पुजारी से पूछा, बताओ हम दोनों में चौसर में कौन जीतेगा, वो पुजारी भगवान शिव का भक्त था और उसके मुंह से तुरन्त निकल पड़ा ‘महादेव जी जीतेंगे’। चौसर का खेल खत्म होने पर पार्वतीजी जीत गयी और शिवजी हार गये। पार्वती जी ने क्रोधित होकर उस पुजारी को शाप देना चाहा, तभी शिवजी ने उन्हें रोक दिया और कहा कि ये तो भाग्य का खेल है उसकी कोई गलती नहीं है फिर भी माता पार्वती ने उस कोढ़ी होने का शाप दे दिया और उसे कोढ़ हो गया। काफी समय तक वो कोढ़ से पीड़ित रहा।
Shiv Parvati

एक दिन एक अप्सरा उस मंदिर में शिवजी की आराधना के लिए आई और उसने उस पुजारी के कोढ़ को देखा। अप्सरा ने उस पुजारी को कोढ़ का कारण पूछा तो उसने सारी घटना उसे सुना दी। अप्सरा ने उस पुजारी को कहा, तुम्हें इस कोढ़ से मुक्ति पाने के लिए सोलह सोमवार व्रत करना चाहिए। उस पुजारी ने व्रत करने की विधि पूछी।
अप्सरा ने बताया, सोमवार के दिन नहा धोकर साफ़ कपड़े पहन लेना और आधा किलो आटे से पंजीरी बना देना, उस पंजीरी के तीन भाग करना, प्रदोष काल में भगवान शिव की आराधना करना, इस पंजीरी के एक तिहाई हिस्से को आरती में आने वाले लोगों को प्रसाद के रूप में देना, इस तरह सोलह सोमवार तक यही विधि अपनाना। 17वें सोमवार को एक चौथाई गेहूं के आटे से चूरमा बना देना और शिवजी को अर्पित कर लोगों में बांट देना, इससे तुम्हारा कोढ़ दूर हो जाएगा। इस तरह सोलह सोमवार व्रत करने से उसका कोढ़ दूर हो गया और वो खुशी-खुशी रहने लगा।
एक दिन शिवजी और पार्वतीजी दोबारा उस मंदिर में लौटे और उस पुजारी को एकदम स्वस्थ देखा। पार्वती जी ने उस पुजारी से स्वास्थ्य लाभ होने का राज पूछा। उस पुजारी ने कहा उसने 16 सोमवार व्रत किए जिससे उसका कोढ़ दूर हो गया।
पार्वती जी इस व्रत के बारे में सुनकर बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने भी ये व्रत किया और इससे उनका पुत्र वापस घर लौट आया और आज्ञाकारी बन गया। कार्तिकेय ने अपनी माता से उनके मानसिक परिवर्तन का कारण पूछा जिससे वो वापस घर लौट आए पार्वती ने उन्हें इन सब के पीछे सोलह सोमवार व्रत के बारे में बताया कार्तिकेय यह सुनकर बहुत खुश हुए।
कार्तिकेय ने अपने दूर गए ब्राह्मण मित्र से मिलने के लिए उस व्रत को किया और सोलह सोमवार होने पर उनका मित्र उनसे मिलने विदेश से वापस लौट आया। उनके मित्र ने इस राज का कारण पूछा तो कार्तिकेय ने सोलह सोमवार व्रत की महिमा बताई यह सुनकर उस ब्राह्मण मित्र ने भी विवाह के लिए सोलह सोमवार व्रत रखने के लिए विचार किया।
एक दिन राजा अपनी पुत्री के विवाह की तैयारियां कर रहा था। कई राजकुमार राजा की पुत्री से विवाह करने के लिए आए। राजा ने एक शर्त रखी कि जिस भी व्यक्ति के गले में हथिनी वरमाला डालेगी उसके साथ ही उसकी पुत्री का विवाह होगा। वो ब्राह्मण भी वही था और भाग्य से उस हथिनी ने उस ब्राह्मण के गले में वरमाला डाल दी और शर्त के अनुसार राजा ने उस ब्राह्मण से अपनी पुत्री का विवाह करा दिया।
एक दिन राजकुमारी ने ब्राह्मण से पूछा आपने ऐसा क्या पुण्य किया जो हथिनी ने दूसरे सभी राजकुमारों को छोड़कर आपके गले में वरमाला डाली। उसने कहा, प्रिये मैंने अपने मित्र कार्तिकेय के कहने पर सोलह सोमवार व्रत किये थे उसी के परिणामस्वरूप तुम लक्ष्मी जैसी दुल्हन मुझे मिली।
राजकुमारी यह सुनकर बहुत प्रभावित हुई और उसने भी पुत्र प्राप्ति के लिए सोलह सोमवार व्रत रखा। फलस्वरूप उसके एक सुंदर पुत्र का जन्म हुआ और जब पुत्र बड़ा हुआ तो पुत्र ने पूछा माँ आपने ऐसा क्या किया जो आपको मेरे जैसा पुत्र मिला, उसने भी पुत्र को सोलह सोमवार व्रत की महिमा बतायी।
यह सुनकर उसने भी राजपाट की इच्छा के लिए ये व्रत रखा। उसी समय एक राजा अपनी पुत्री के विवाह के लिए वर तलाश कर रहा था तो लोगों ने उस बालक को विवाह के लिए उचित बताया। राजा को इसकी सूचना मिलते ही उसने अपनी पुत्री का विवाह उस बालक के साथ कर दिया।
कुछ सालों बाद जब राजा की मृत्यु हुयी तो वो राजा बन गया क्योंकि उस राजा के कोई पुत्र नही था। राजपाट मिलने के बाद भी वो सोमवार व्रत करता रहा। एक दिन 17 वें सोमवार व्रत पर उसकी पत्नी को भी पूजा के लिए शिव मंदिर आने को कहा लेकिन उसने खुद आने के बजाय दासी को भेज दिया।
ब्राह्मण पुत्र के पूजा खत्म होने के बाद आकाशवाणी हुई तुम अपनी पत्नी को अपने महल से दूर रखो, वरना तुम्हारा विनाश हो जाएगा। ब्राह्मण पुत्र ये सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हुआ।
महल वापस लौटने पर उसने अपने दरबारियों को भी ये बात बताई तो दरबारियों ने कहा कि जिसकी वजह से ही उसे राजपाट मिला है वो उसी को महल से बाहर निकालेगा। लेकिन उस ब्राह्मण पुत्र ने उसे महल से बाहर निकल दिया। वो राजकुमारी भूखी प्यासी एक अनजान नगर में आयी। वहां पर एक बुढ़ी औरत धागा बेचने बाजार जा रही थी।
जैसे ही उसने राजकुमारी को देखा तो उसने उसकी मदद करते हुए उसके साथ व्यापार में मदद करने को कहा। राजकुमारी ने भी एक टोकरी अपने सर पर रख ली। कुछ दूरी पर चलने के बाद एक तूफान आया और वो टोकरी उड़कर चली गई अब वो बूढ़ी औरत रोने लग गई और उसने राजकुमारी को मनहूस मानते हुए चले जाने को कहा।
उसके बाद वो एक तेली के घर पहुंची उसके वहा पहुंचते ही सारे तेल के घड़े फूट गए और तेल बहने लग गया। उस तेली ने भी उसे मनहूस मानकर उसको वहा से भगा दिया। उसके बाद वो एक सुंदर तालाब के पास पहुंची और जैसे ही पानी पीने लगी उस पानी में कीड़े चलने लगे और सारा पानी धुंधला हो गया।
अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए उसने गंदा पानी पी लिया और पेड़ के नीचे सो गई जैसे ही वो पेड़ के नीचे सोयी उस पेड़ की सारी पत्तियां झड़ गईं। अब वो जिस पेड़ के पास जाती उसकी पत्तियां गिर जाती थीं।
ऐसा देखकर वहां के लोग मंदिर के पुजारी के पास गए। उस पुजारी ने उस राजकुमारी का दर्द समझते हुए उससे कहा – बेटी तुम मेरे परिवार के साथ रहो, मैं तुम्हे अपनी बेटी की तरह रखूंगा, तुम्हे मेरे आश्रम में कोई तकलीफ नहीं होगी। इस तरह वह आश्रम में रहने लग गई अब वो जो भी खाना बनाती या पानी लाती उसमे कीड़े पड़ जाते।
ऐसा देखकर वो पुजारी आश्चर्यचकित होकर उससे बोला बेटी तुम पर ये कैसा कोप है जो तुम्हारी ऐसी हालत है। उसने वही शिवपूजा में ना जाने वाली कहानी सुनाई। उस पुजारी ने शिवजी की आराधना की और उसको सोलह सोमवार व्रत करने को कहा जिससे उसे जरूर राहत मिलेगी।
उसने सोलह सोमवार व्रत किया और 17 वें सोमवार पर ब्राह्मण पुत्र उसके बारे में सोचने लगा, वह कहाँ होगी, मुझे उसकी तलाश करनी चाहिये। इसलिए उसने अपने आदमी भेजकर अपनी पत्नी को ढूंढ़ने को कहा उसके आदमी ढूंढ़ते ढूंढ़ते उस पुजारी के घर पहुंच गए और उन्हें वहा राजकुमारी का पता चल गया। उन्होंने पुजारी से राजकुमारी को घर ले जाने को कहा लेकिन पुजारी ने मना करते हुए कहा अपने राजा को कहो कि खुद आकर इसे ले जाएं।
राजा खुद वहां पर आया और राजकुमारी को वापस अपने महल लेकर आया। इस तरह जो भी यह सोलह सोमवार व्रत (Somvar vrat katha) करता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

मंगलवार व्रत कथा | Mangalvar Vrat Katha

व्यास जी ने कहा- एक बार नैमिषारण्य तीर्थ में अस्सी हजार मुनि एकत्र हो कर पुराणों के ज्ञाता श्री सूत जी से पूछने लगे- हे महामुने! आपने हमें अनेक पुराणों की कथाएं सुनाई हैं, अब कृपा करके हमें ऐसा व्रत और कथा बतायें जिसके करने से सन्तान की प्राप्ति हो तथा मनुष्यों को रोग, शोक, अग्नि, सर्व दुःख आदि का भय दूर हो क्योंकि कलियुग में सभी जीवों की आयु बहुत कम है। फिर इस पर उन्हें रोग-चिन्ता के कष्ट लगे रहेंगे तो फिर वह श्री हरि के चरणों में अपना ध्यान कैसे लगा सकेंगे।
श्री सूत जी बोले- हे मुनियों! आपने लोक कल्याण के लिए बहुत ही उत्तम बात पूछी है। एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से लोक कल्याण के लिए यही प्रश्न किया था। भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद तुम्हारे सामने कहता हूं, ध्यान देकर सुनो।
एक समय पाण्डवों की सभा में श्रीकृष्ण जी बैठे हुए थे। तब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया- हे प्रभो, नन्दनन्द, गोविन्द! आपने मेरे लिए अनेकों कथायें सुनाई हैं, आज आप कृपा करके ऐसा व्रत या कथा सुनायें जिसके करने से मनुष्य को रोग-चिन्ता का भय समाप्त हो और उसको पुत्र की प्राप्ति हो, हे प्रभो, बिना पुत्र के जीवन व्यर्थ है, पुत्र के बिना मनुष्य नरकगामी होता है, पुत्र के बिना मनुष्य पितृ-ऋण से छुटकारा नहीं पा सकता और न ही उसका पुन्नग नामक नरक से उद्धार हो सकता है। अतः पुत्र दायक व्रत बतलाएं।

Hanuman JI

श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे राजन्‌ ! मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, आप उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
कुण्डलपुर नामक एक नगर था, उसमें नन्दा नामक एक ब्राह्‌मण रहता था। भगवान की कृपा से उसके पास सब कुछ था, फिर भी वह दुःखी था। इसका कारण यह था कि ब्राह्‌मण की स्त्री सुनन्दा के कोई सन्तान न थी। सुनन्दा पतिव्रता थी। भक्तिपूर्वक श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। मंगलवार के दिन व्रत करके अन्त में भोजन बना कर हनुमान जी का भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन करती थी। एक बार मंगलवार के दिन ब्राह्‌मणी गृह कार्य की अधिकता के कारण हनुमान जी को भोग न लगा सकी, तो इस पर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने कुछ भी नहीं खाया और अपने मन में प्रण किया कि अब तो अगले मंगलवार को ही हनुमान जी का भोग लगाकर अन्न-जल ग्रहण करूंगी।
ब्राह्‌मणी सुनन्दा प्रतिदिन भोजन बनाती, श्रद्धापूर्वक पति को खिलाती, परन्तु स्वयं भोजन नहीं करती और मन ही मन श्री हनुमान जी की आराधना करती थी। इसी प्रकार छः दिन गुजर गए, और ब्राह्‌मणी सुनन्दा अपने निश्चय के अनुसार भूखी प्यासी निराहार रही, अगले मंगलवार को ब्राह्‌मणी सुनन्दा प्रातः काल ही बेहोश होकर गिर पड़ी।
ब्राह्‌मणी सुनन्दा की इस असीम भक्ति के प्रभाव से श्री हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए और प्रकट होकर बोले- सुनन्दा ! मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू उठ और वर मांग।
सुनन्दा अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी को देखकर आनन्द की अधिकता से विह्‌वल हो श्री हनुमान जी के चरणों में गिरकर बोली- 'हे प्रभु, मेरी कोई सन्तान नहीं है, कृपा करके मुझे सन्तान प्राप्ति का आशीर्वाद दें, आपकी अति कृपा होगी।'
श्री महावीर जी बोले -'तेरी इच्छा पूर्ण होगी। तेरे एक कन्या पैदा होगी उसके अष्टांग प्रतिदिन सोना दिया करेंगे।' इस प्रकार कह कर श्री महावीर जी अन्तर्ध्यान हो गये। ब्राह्‌मणी सुनन्दा बहुत हर्षित हुई और सभी समाचार अपने पति से कहा, ब्राह्‌मण देव कन्या का वरदान सुनकर कुछ दुःखी हुए, परन्तु सोना मिलने की बात सुनी तो बहुत प्रसन्न हुए। विचार किया कि ऐसी कन्या के साथ मेरी निर्धनता भी समाप्त हो जाएगी।
श्री हनुमान जी की कृपा से वह ब्राह्‌मणी गर्भवती हुई और दसवें महीने में उसे बहुत ही सुन्दर पुत्री प्राप्त हुई। यह बच्ची, अपने पिता के घर में ठीक उसी तरह से बढ़ने लगी, जिस प्रकार शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ ता है। दसवें दिन ब्राह्‌मण ने उस बालिका का नामकरण संस्कार कराया, उसके कुल पुरोहित ने उस बालिका का नाम रत्नावली रखा, क्योंकि यह कन्या सोना प्रदान किया करती थी, इस कन्या ने पूर्व-जन्म में बड़े ही विधान से मंगलदेव का व्रत किया था।
रत्नावली का अष्टांग बहुत सा सोना देता था, उस सोने से नन्दा ब्राह्‌मण बहुत ही धनवान हो गय। अब ब्राह्‌मणी भी बहुत अभिमान करने लगी थी। समय बीतता रहा, अब रत्नावली दस वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन जब नन्दा ब्राह्‌मण प्रसन्न चित्त था, तब सुनन्दा ने अपने पति से कहा- 'मेरी पुत्री रत्नावली विवाह के योग्य हो गयी है, अतः आप कोई सुन्दर तथा योग्य वर देखकर इसका विवाह कर दें।' यह सुन ब्राह्‌मण बोला- 'अभी तो रत्नावली बहुत छोटी है' । तब ब्राह्‌मणी बोली- 'शास्त्रों की आज्ञा है कि कन्या आठवें वर्ष में गौरी, नौ वर्ष में राहिणी, दसवें वर्ष में कन्या इसके पश्चात रजस्वला हो जाती है। गौरी के दान से पाताल लोक की प्राप्ति होती है, राहिणी के दान से बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है, कन्या के दान से इन्द्रलोक में सुखों की प्राप्ति होती है। अगर हे पतिदेव! रजस्वला का दान किया जाता है तो घोर नर्क की प्राप्ति होती है।'
इस पर ब्राह्‌मण बोला -'अभी तो रत्नावली मात्र दस ही वर्ष की है और मैंने तो सोलह-सोलह साल की कन्याओं के विवाह कराये हैं अभी जल्दी क्या है।' तब ब्राह्‌मणी सुनन्दा बोली- ' आपको तो लोभ अधिक हो गया लगता है। शास्त्रों में कहा गया है कि माता-पिता और बड़ा भाई रजस्वला कन्या को देखते हैं तो वह अवश्य ही नरकगामी होते हैं।'
तब ब्राह्‌मण बोला-'अच्छी बात है, कल मैं अवश्य ही योग्य वर की तलाश में अपना दूत भेजूंगा।' दूसरे दिन ब्राह्‌मण ने अपने दूत को बुलाया और आज्ञा दी कि जैसी सुन्दर मेरी कन्या है वैसा ही सुन्दर वर उसके लिए तलाश करो। दूत अपने स्वामी की आज्ञा पाकर निकल पड़ा। पम्पई नगर में उसने एक सुन्दर लड के को देखा। यह बालक एक ब्राह्‌मण परिवार का बहुत गुणवान पुत्र था, इसका नाम सोमेश्वर था। दूत ने इस सुन्दर व गुणवान ब्राह्‌मण पुत्र के बारे में अपने स्वामी को पूर्ण विवरण दिया। ब्राह्‌मण नन्दा को भी सोमेश्वर अच्छा लगा और फिर शुभ मुहूर्त में विधिपूर्वक कन्या दान करके ब्राह्‌मण-ब्राह्‌मणी संतुष्ट हुए।
परन्तु! ब्राह्‌मण के मन तो लोभ समाया हुआ था। उसने कन्यादान तो कर दिया था पर वह बहुत खिन्न भी था। उसने विचार किया कि रत्नावली तो अब चली जावेगी, और मुझे इससे जो सोना मिलता था, वह अब मिलेगा नहीं। मेरे पास जो धन था कुछ तो इसके विवाह में खर्च हो गया और जो शेष बचा है वह भी कुछ दिनों पश्चात समाप्त हो जाएगा। मैंने तो इसका विवाह करके बहुत बड़ी भूल कर दी है। अब कोई ऐसा उपाय हो कि रत्नावली मेरे घर में ही बनी रहे, अपनी ससुराल ना जावे। लोभ रूपी राक्षस ब्राह्‌मण के मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। रात भर अपनी शैय्‌या पर बेचैनी से करवटें बदलते-बदलते उसने एक बहुत ही क्रूर निर्णय लिया। उसने विचार किया कि जब रत्नावली को लेकर उसका पति सोमेश्वर अपने घर के लिए जाएगा तो वह मार्ग में छिप कर सोमेश्वर का वध कर देगा और अपनी लड की को अपने घर ले आवेगा, जिससे नियमित रूप से उसे सोना भी मिलता रहेगा और समाज का कोई मनुष्य उसे दोष भी नहीं दे सकेगा।
प्रातःकाल हुआ तो, नन्दा और सुनन्दा ने अपने जमाई तथा लड की को बहुत सारा धन देकर विदा किया। सोमेश्वर अपनी पत्नी रत्नावली को लेकर ससुराल से अपने घर की तरफ चल दिया।
ब्राह्‌मण नन्दा महालोभ के वशीभूत हो अपनी मति खो चुका था। पाप-पुण्य को उसे विचार न रहा था। अपने भयानक व क्रूर निर्णय को कार्यरूप देने के लिए उसने अपने दूत को मार्ग में अपने जमाई का वध करने के लिए भेज दिया था ताकि रत्नावली से प्राप्त होने वाला सोना उसे हमेशा मिलता रहे और वो कभी निर्धन न हों ब्राह्‌मण के दूत ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए उसके जमाई सोमेश्वर का मार्ग में ही वध कर दिया। समाचार प्राप्त कर ब्राह्‌मण नन्दा मार्ग में पहुंचा और रुदन करती अपनी पुत्री रत्नावली से बोला-'हे पुत्री! मार्ग में लुटेरों ने तेरे पति का वध कर दिया है। भगवान की इच्छा के आगे किसी का कोई वश नहीं चलता है। अब तू घर चल, वहां पर ही रहकर शेष जीवन व्यतीत करना। जो भाग्य में लिखा है वही होगा।'
अपने पति की अकाल मृत्यु से रत्नावली बहुत दुःखी हुई। करुण क्रन्दन व रुदन करते हुए अपने पिता से बोली- 'हे पिताजी! इस संसार में जिस स्त्री का पति नहीं है उसका जीना व्यर्थ है, मैं अपने पति के साथ ही अपने शरीर को जला दूंगी और सती होकर अपने इस जन्म को, माता-पिता के नाम को तथा सास-ससुर के यश को सार्थक करूंगी।'
ब्राह्‌मण नन्दा अपनी पुत्री रत्नावली के वचनों को सुनकर बहुत दुःखी हुआ। विचार करने लगा- मैंने व्यर्थ ही जमाई वध का पाप अपने सिर लिया। रत्नावली तो उसके पीछे अपने प्राण तक देने को तैयार है। मेरा तो दोनों तरफ से मरण हो गया। धन तो अब मिलेगा नहीं, जमाई वध के पाप के फलस्वरूप यम यातना भी भुगतनी पड़ेगी। यह सोचकर वह बहुत खिन्न हुआ।
सोमेश्वर की चिता बनाई गई। रत्नावली सती होने की इच्छा से अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर चिता में बैठ गई। जैसे ही सोमेश्वर की चिता को अग्नि लगाई गई वैसे ही प्रसन्न हो मंगलदेव वहां प्रकट हुए और बोले-'हे रत्नावली! मैं तेरी पति भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू वर मांग।' रत्नावली ने अपने पति का जीवनदान मांगा। तब मंगल देव बोले-'रत्नावली! तेरा पति अजर-अमर है। यह महाविद्वान भी होगा। और इसके अतिरिक्त तेरी जो इच्छा हो वर मांग।'
तब रत्नावली बोली- 'हे ग्रहों के स्वामी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिए कि जो भी मनुष्य मंगलवार के दिन प्रातः काल लाल पुष्प, लाल चन्दन से पूजा करके आपका स्मरण करे उसको रोग-व्याधि न हो, स्वजनों का कभी वियोग न हो, सर्प, अग्नि तथा शत्रुओं का भय न रहे, जो स्त्री मंगलवार का व्रत करे, वह कभी विधवा न हो।''
मंगलदेव -'तथास्तु' कह कर अन्तर्ध्यान हो गये।
सोमेश्वर मंगलदेव की कृपा से जीवित हो उठा। रत्नावली अपने पति को पुनः प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई और मंगल देव का व्रत प्रत्येक मंगलवार को करके व्रतराज और मंगलदेव की कृपा से इस लोक में सुख-ऐश्वर्य को भोगते हुए अन्त में अपने पति के साथ स्वर्ग लोक को गई।

बुधवार व्रत कथा

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार बुधवार व्रत की एक कथा काफी प्रचलित है. एक समय की बात है कि एक धनी व्यक्ति मधुसूदन अपनी पत्नी को विदा कराने के लिए अपने ससुराल गया. वह कुछ दिन वहीं ससुराल में ही रहा है फिर अपने सास-ससुर विदा करने को कहा. लेकिन सास-ससुर ने कहा कि आज बुधवार का दिन है और आज के दिन गमन नहीं करना चाहिए. लेकिन मधुसूदन नहीं माना और बुधवार के दिन ही पत्नी को विदा कराकर अपने घर की ओर चल पड़ा. रास्ते में उसकी पत्नी को प्यास लगी, तो मधुसूदन लोटा लेकर रथ से उतरकर पानी लेने चल गया. जैसे ही वह पानी लेकन अपनी पत्नी के पास पहुंचा तो देखकर चौंक गया कि उसके जैसी सूरत और वेश-भूषा वाला एक व्यक्ति उसकी पत्नी के साथ बैठा हुआ था.
Ganesh God

जिसे देखकर मधुसूदन क्रोधित हुआ और क्रोध में उसने कहा, ‘तू कौन है जो मेरी पत्नी के साथ बैठा ​हुआ है? इसके जवाब में दूसरा व्यक्ति बोला, ‘ये मेरी पत्नी है और मैं इसे अभी ससुरात से विदा कराकर घर ले जा रहा हूं.’ इसके बाद दोनों में झगड़ा होने लगा. तभी राज्य के कुछ सिपाही आकर लोटे वाले व्यक्ति को पकड़ने लगे. उन्होंने स्त्री से पूछा कि ‘तुम बताओं, इनमें से तुम्हारा असली पति कौन है?’
पत्नी शांत रही क्योंकि दोनों ही देखने में बिल्कुल एक समान थे. वह समझ नहीं पा रही थी कि इनमें से उसका असली पति कौन है? तभी लोटे वाला व्यक्ति परेशान होकर कहा कि हे भगवान! ये क्या लीला है ​जो सच्चे को झूठा बताया जा रहा है. तभी एक आकाशवाणी हुई ‘मूर्ख आज बुधवार के दिन तुझे गमन नहीं करना चाहिए था और तून किसी की बात नहीं मानी. ये सारी लीला बुद्धदेव भगवान की है.
फिर उस व्यक्ति ने बुद्धदेव भगवान की प्रार्थना की और उनसे अपनी गलती की क्षमा मांगी. इसके बाद वह अपनी पत्नी को लेकर घर आ गया. इसके बाद से दोनों पती-पत्नी प्रत्येक बुधवार को नियमपूर्व व्रत करने करने लगे. मान्यता है कि व्यक्ति इस कथा को पढ़ता और सुनता है, उसे बुधवार के दिन यात्रा करने का दोष नहीं लगता. उसे भी सुख प्राप्त होते हैं.

बृहस्पतिवार व्रत कथा

प्राचीन काल में एक प्रतापी राजा था. वह दानवीर था. वह हर बृहस्पतिवार को व्रत रखता था और गरीबों को दान देता था. लेकिन राजा की रानी को यह बात पसंद नहीं थी. वह न तो व्रत करती थी और ना ही दान करने देती थी |
एक दिन राजा शिकार करने जंगल निकला. रानी अपनी दासी के साथ घर पर ही थीं. उसी समय गुरु बृहस्पतिदेव साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए. लेकिन रानी ने साधु को भिक्षा देने की बजाय टालती रही. साधु ने दोबारा भिक्षा मांगी. रानी ने फिर काम बताकर कहा कि कुछ देर बाद आना. साधु ने कुछ देर बाद फिर भिक्षा मांगी. इस पर रानी नाराज हो गई और कहा कि मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं. आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे मुझे इस कष्ट से मुक्ति मिल जाए |
बृहस्पतिदेव ने कहा कि अगर तुम ऐसा ही चाहती हो तो मैं जैसा तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना. गुरुवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना. इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जाएगा. इतना कहकर साधु रुपी बृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए |
Vishnu Ji

साधु ने जैसा बताया, रानी वैसा ही करने लगी. तीन गुरुवार बीतते ही रानी राजा की समस्त संपत्ति नष्ट हो गई. यहां तक कि भोजन के भी लाले पड़ गए. घर की ऐसी स्थिति देख राजा दूर देश कमाने चला गया और घर में रानी अकेले रह गई. रानी ने एक दिन अपनी बहन के पास अपनी दासी को भेजा और कहा कि वहां से कुछ मांग ला, जिससे घर का काम चल सके | उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन बृहस्पति व्रत कथा सुन रही थी. रानी की दासी वहां पहुंचकर और रानी की सारी व्यथा सुनाई | लेकिन रानी की बहन ने कोई जवाब नहीं दिया. ऐसा देखकर रानी की दासी वहां रुके बिना ही वापस चली आई |
दासी ने रानी को सारी बात बताई और कहा कि आपकी बहन ने किसी प्रकार की मदद नहीं की. उधन रानी की बहन कथा सुनकर और पूजन समाप्त करके अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- बहन, मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी. तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परंतु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली. कहो दासी क्यों गई थी.
रानी ने अपनी सारी व्यथा सुनाई. रानी की बहन ने पूरी बात सुनने के बाद कहा कि देखो बहन, भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं. देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो |
पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया. यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई. दासी रानी से कहने लगी- हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सकें. तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा |
उसकी बहन ने बताया, बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें. इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं. व्रत और पूजन विधि बताकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई |
सात दिन के बाद जब गुरुवार आया, तो रानी और दासी ने व्रत रखा. घुड़साल में जाकर चना और गुड़ लेकर आईं. फिर उससे केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया. अब पीला भोजन कहां से आए इस बात को लेकर दोनों बहुत दुखी थे. उन्होंने व्रत रखा था इसलिए बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न थे. इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दासी को दे गए. भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया |
उसके बाद वे सभी गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगी. बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई, परंतु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी. तब दासी बोली- देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होता है |
रानी को समझाते हुए दासी कहती है कि बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराना चाहिए और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पित्र प्रसन्न होंगे. दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी, जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा |

संतोषी मां व्रत कथा

बहुत समय पहले एक बुढिया के सात पुत्र थे. उनमें से 6 कमाते थे और एक बेटा निकम्मा था. बुढिया निकम्मे बेटे के साथ दुर्व्यवहार करती थी. वे अपने 6 बेटों को अपने हाथों से खाना खिलाती थी और निकम्मे बेटे को जूठन खिलाती थी. निकम्मे बेटे की बहु को ये सब अच्छा नहीं लगता था. एक दिन पत्नी ने अपने पति क जूठन खिलाने वाली सारी सच्चाई पति को बता दी. पति ने ये जानकर दूसरे राज्य में जाने का निश्चय किया. पति के निकलने से पहले पत्नी ने अपने पति से निशानी के तौर पर अंगूठी ले ली. दूसरे राज्य में पहुंचकर उसने एक सेठ की दुकान पर काम किया और अपनी मेहनत से जगह बना ली. दूसरी तरफ उसकी पत्नी पर घर वाले काफू जुर्म करने लगे. एक दिन जब वो लकडि़यां ला रही थी तो रास्ते में उसने कुछ महिलाओं को संतोषी माता की पूजा करते हुए देखा. उसने उन औरतों से पूजा विधि पूछी। पूजा विधि जानकर बहू ने सवा रूपए का गुड़-चना लेकर संतोषी माता के मंदिर में जाकर व्रत करने का संकल्प लिया. दो शुक्रवार ये व्रत करने से उसके पति का पता और पैसे दोनों आ गए. तब बहु ने माता के मंदिर में जाकर अपने पति को वापस लाने के लिए कहा. माता ने बेटे को सपने में दर्शन दिए और घर जाने के लिए कहा. तब बेटा घर जाने के लिए तैयार हो गया. इधर माता ने पत्नी को भी इस बात का ज्ञान दे दिया कि उसका पति आज आने वाला है. ऐसे में तू नदी किनारे थोड़ी लकडि़यां रख दे और देर से घर जाना. फिर आंगन से ही आवाज देना कि सासूमां, लकडि़यां ले लो और भूसे की रोटी व नारियल के खोल में पानी दे दो. माता ने जैसा-जैसा कहा बहू ने वैसा-वैसा किया. जब बेटा घर आया तो उसने अपनी पत्नी के बारे में पूछा. तभी बहू आकर आवाज लगाकर भूसे की रोटी और नारियल के खोल में पानी मांगने लगी. सांस तो शर्म आई तो वो बेटे के सामने बोली कि रोज चार बार खाती है, आज मेरे बेटे को देखकर नाटक कर रही है. बेटे को पहले से ही सारी सच्चाई पता थी इसलिए वो अपनी पत्नी को लेकर दूसरे घर में ठाठ से रहने लगा |

शनिवार व्रत कथा

एक बार की बात है ब्रह्मांड के सभी नवग्रहों के बीच विवाद हो गया था और वह सब यह जानना चाहते थे कि उनमें से सबसे बड़ा कौन है जिसके लिए वह देवराज इंद्र के पास गए. इंद्र ने उन्हें राजा विक्रमादित्य के पास जाने के लिए कहा. जिसके बाद सभी नवग्रह अपनी समस्या लेकर राजा विक्रमादित्य के पास गए. राजा विक्रमादित्य जानते थे कि अगर वह इन नवग्रहों में से किसी एक को छोटा बताएंगे तो वह कुपित हो जाएगा. लेकिन वह अन्याय नहीं करना चाहते थे और इस समस्या का हल निकालने के लिए उन्होंने नव धातुओं से नौ सिंहासन बनाए और हर एक सिंहासन के सामने एक-एक ग्रह को खड़ा कर दिया |
Shani Dev

ऐसे में शनिदेव को राजा विक्रमादित्य ने अंतिम स्थान दिया जिसकी वजह से शनिदेव गुस्सा हो गए और उन्हें चेतावनी देकर चले गए. धीरे धीरे राजा विक्रमादित्य की कुंडली में साढ़ेसाती का प्रकोप बढ़ने लग गया. एक दिन घोड़े का सौदागर बनकर शनिदेव राजा के पास गए और कई घोड़ों में राजा विक्रमादित्य को एक घोड़ा पसंद आया. जैसे ही वह उस घोड़े पर बैठे वैसे ही वह घोड़ा उन्हें जंगल में लेकर चला गया. जंगल में राजा विक्रमादित्य कहीं खो गए और भटकते-भटकते नए देश में चले गए. यहां राजा को एक सेठ मिला और राजा के आने से सेठ का सामान बिकना शुरू हो गया जिससे सेठ बहुत खुश हुआ. वह राजा को भोजन करवाने ले गया. सेठ के घर में एक खूंटी थी जिस पर हार लटका हुआ था. राजा ने देखा कि वह खूंटी उस हार को निगल रही है. जैसे ही राजा ने अपना खाना खत्म किया वैसे ही वह खूंटी ने हार को पूरा निगल लिया. जब सेठ को वह हार नहीं मिला तब उसने राजा विक्रमादित्य को अपने राजा के पास कैद करवा दिया |
सेठ के राजा ने राजा विक्रमादित्य को दोषी बताया और उनके हाथ काट दिए. जिसके बाद राजा विक्रमादित्य को एक तेली अपने घर ले गया और उन्हें बैल हांकने का काम दे दिया. धीरे-धीरे करके साढ़े सात साल पूरे हो गए और शनि की महादशा भी समाप्त हो गई. साढ़े साती पूरे होने के बाद राजा विक्रमादित्य ने एक राग छेड़ा जिसके बाद राज्य की राजकुमारी ने राजा से शादी करने के लिए प्रण लिया. राजकुमारी को खूब समझाया गया लेकिन वह किसी की बात नहीं मानी और राजा विक्रमादित्य से उसकी शादी हो गई. रात में जब राजा विक्रमादित्य सो रहे थे तब उनके सपने में शनिदेव आए. शनिदेव ने कहा कि तुमने मुझे सबसे छोटा ठहराया था अब देखो मेरा ताप और‌ प्रकोप |
इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने शनिदेव से माफी मांगी और शनिदेव ने उन्हें माफ कर दिया. सुबह तक सबको राजा और शनि देव की बात पता चल गई थी जिसकी वजह से व्यापारी उनसे माफी मांगने लगा. व्यापारी ने राजा को वापस अपने घर आने का निमंत्रण दिया. जैसे ही राजा ने खाना खाना शुरू किया वैसे ही खूंटी ने हार उगल दिया. जिसकी वजह से सब को यह पता चल गया कि राजा विक्रमादित्य ने चोरी नहीं की थी. व्यापारी ने अपनी बेटी की शादी राजा विक्रमादित्य से करवाई जिसके बाद राजा विक्रमादित्य अपनी दोनों रानियों के साथ उज्जैन वापस आ गए |





















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