हरितालिका तीज व्रत क्यों करे ?
हरितालिका तीज पूजन सामग्री
केला, केला स्तम्भ , दूध , सुहाग , पिटारी, गंगाजल , दही , तरकी ,चूड़ी , चावल , घी , बिछिया , फूलहार , शक्कर , कंघा , मृत्तिका, शहद , शीशा , चन्दन , केशर , दीपक , फल, पान, धूप , कपूर , सुपारी , पकवान , यज्ञोपवीत , मिठाई इत्यादि |हरतालिका तीज विधि
हरतालिका (तीज) व्रत धारण करने वाली स्त्रियां भादो महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में जागें, नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, उसके पश्चात तिल तथा आंवला के चूर्ण के साथ स्नान करें फिर पवित्र स्थान में आटे से चौक पूर कर केले का मण्डप बनाकर शिव पार्वती की पार्थिव-प्रतिमा (मिट्टी की मूर्ति) बनाकर स्थापित करें। तत्पश्चात नवीन वस्त्र धारण करके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर देशकालादि के उच्चारण के साथ हाथ में जल लेकर संकल्प करें कि मैं आज तीज के दिन शिव पार्वती का पूजन करूंगी इसके अनन्तर ''श्री गणेशाय नमः'' उच्चारण करते हुए गणेश जी का पूजन करें। ''कलशाभ्यो नमः'' से वरुणादि देवों का आवाहन करके कलश पूजन करें। चन्दनादि समर्पण करें, कलशमुद्रा दिखावें घन्टा बजावें जिससे राक्षस भाग जायं और देवताओं का शुभागमन हो, गन्ध अक्षतादि द्वारा घंटा को नमस्कार करें, दीपक को नमस्कार कर पुष्पाक्षतादि से पूजन करें, हाथ में जल लेकर पूजन सामग्री तथा अपने ऊपर जल छिड़कें।इन्द्र आदि अष्ट लोकपालों का आवाहन एवं पूजन करें, इसके बाद अर्ध्य, पाद्य, गंगा-जल से आचमन करायें। शंकर-पार्वती को गंगाजल, दूध, मधु, दधि और घृत से स्नान कराकर फिर शुद्ध जल से स्नान करावें। इसके उपरान्त हरेक वस्तु अर्पण के लिए 'ओउम नमः शिवाय' कहती जाय और पूजन करें। अक्षत, पुष्प, धूप तथा दीपक दिखावें। फिर नैवेद्य चढ ाकर आचमन करावें, अनन्तर हाथों के लिए उबटन अर्पण करें। इस प्रकार के पंचोपचार पूजन से श्री शिव हरितालिका की प्रसन्नता के लिए ही कथन करें। फिर उत्तर की ओर निर्माल्य का विसर्जन करके श्री शिव हरितालिका की जयजयकार महा-अभिषेक करें। इसके बाद सुन्दर वस्त्र समर्पण करें, यज्ञोपवीत धारण करावें। चन्दन अर्पित करें, अक्षत चढ़ावें,। सप्तधान्य समर्पण करें। हल्दी चढ़ावें, कुंकुम मांगलिक सिन्दूर आदि अर्पण करें। ताड पत्र (भोजपत्र) कंठ माला आदि समर्पण करें। सुगन्धित पुष्प अर्पण करें, धूप देवें, दीप दिखावें, नैवेद्य चढावें। फिर मध्य में जल से हाथ धुलाने के लिए जल छोडेें और चन्दन लगावें। नारियल तथा ऋतु फल अर्पण करें। ताम्बूल (सुपारी) चढावें। दक्षिणा द्रव्य चढावें। भूषणादि चढावें। फिर दीपारती उतारें। कपूर की आरती करें। पुष्पांजलि चढावें। इसके बाद परिक्रमा करें। और 'ओउम नमः शिवाय' इस मंत्र से नमस्कार करें। फिर तीन अर्ध्य देवें। इसके बाद संकल्प द्वारा ब्राह्मण आचार्य का वायन वस्त्रादि द्वारा पूजन करें। पूजा के पश्चात अन्न, वस्त्र, फल दक्षिणा युक्तपात्र हरितालिका देवता के प्रसन्नार्थ ब्राह्मण को दान करें उसमें 'न मम' कहना आवश्यक है, इससे देवता प्रसन्न होते हैं। दान लेने वाला संकल्प लेकर वस्तुओं के ग्रहण करने की स्वीकृति देवे, इसके बाद विसर्जन करें। विसर्जन में अक्षत एवं जल छिडकें।
हरितालिका तीज व्रत कथा
जिनके दिव्य केशों पर मंदार के पुष्पों की माला शोभा देती है और जिन भगवन शंकर के मस्तक पर चंद्र और कंठ में मुंडो की माला पड़ी हुई है, जो माता पार्वती दिव्य वस्त्रो से तथा भगवान शंकर दिगंबर वेष धारण किए हैं , उन दोनों भवानी शंकर को नमस्कार करता हूँ |
कैलाश पर्वत के सुन्दर शिखर पर माता पार्वती जी ने श्री महादेव जी से पूछा हे - महेश्वर ! मुझ से आप वह गुप्त से गुप्त वार्ता कहिये जो सबके लिए सब धर्मों से भी सरल तथा महान फल देने वाली हो | हे नाथ ! यदि आप भलीभांति प्रस्सन है तो आप उसे मेरे सामने प्रकट कीजिये | हे जगत नाथ ! आप आदि, मध्य और अंत रहित हैं|
आपकी माया का कोई पार नहीं है | आपको मैंने किस भाँति प्राप्त किया है ? कौन से व्रत, तप या दान के पुण्य फल से आप मुझको वर रूप में मिले ?
श्री महादेव जी बोले - हे देवी ! यह सुन, मैं तेरे सम्मुख उस व्रत को कहता हूँ , जो परम गुप्त है, जैसे तारागणों में चन्द्रमा और ग्रहों में सूर्य , देवताओं में गंगा, वेदों में साम और इंद्रियों में मन श्रेष्ठ है | वैसे ही पुराण और वेद सबमें इसका वर्णन आया है| जिसके प्रभाव से तुमको मेरा आधा आसान प्राप्त हुआ है |
हे प्रिये ! उसी का में वर्णन करता हूँ सुनो - भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की हस्त नक्षत्र संयुक्त तृतीया के दिन इस व्रत का अनुष्ठान मात्र से सब पापों का नाश हो जाता है | तुमने हिमालय पर्वत पर इसी प्रकार का व्रत किया था , जो मैं तुम्हें सुनाता हूँ |
शंकर जी बोले आर्यावर्त में हिमालय नामक एक महान पर्वत है , जो गंगा की कल कल ध्वनि से शब्दायवान रहता है| हे पार्वती ! तुमने बाल्यकाल में उसी स्थान पर परम तप किया था | तुमने ग्रीष्म काल में बाहर चट्टानों पर आसन लगा के तप किया | वर्षा काल में पानी में तप किया | शीत काल में पानी में खड़े होकर मेरे ध्यान में सलग्न रहीं , इस प्रकार छः कालों में तपस्या करके भी जब मेरे दर्शन न मिले तब तुमने ऊर्ध्वमुख होकर केवल वायुसेवन की , फिर वृक्षों के शुके पत्ते खाकर इस शरीर को कमजोर किया |
तुम्हारे इस कष्ट को देखकर तुम्हारे पिता को बड़ी चिंता हुई और चिंतातुर होकर सोचने लगे कि मैं इस कन्या की किससे शादी करूँ | इसी समय महर्षि नारद उपस्थित हुए | राजा ने हर्ष के साथ नारद जी का स्वागत किया और उपस्थित होने का कारण बताने को कहा |
नारदजी ने कहा , राजन मैं भगवान् विष्णु का भेजा आया हूँ | मैं चाहता हूँ की आपकी सुन्दर कन्या को योग्य वर प्राप्त हो , बैकुंठ निवासी शेषशायी भगवान् ने आप की कन्या का वरण स्वीकार किया है | राजा हिमांचल ने कहा , मेरा सौभाग्य है जो मेरी कन्या को विष्णु जी ने स्वीकार किया है और में अवश्य ही उन्हें अपनी कन्या का वरदान करूँगा | यह सुनिश्चित हो जाने पर नारदजी बैकुंठ पहुंचकर श्री विष्णु भगवान् से पार्वती जी के विवाह का निश्चित होना सुनाया | इधर महाराज हिमांचल ने वन में पहुंचकर पार्वती जी से भगवान् विष्णु से विविआह निश्चित होने का समाचार दिया , ऐसा सुनते ही पार्वतीजी को बहुत दुःख हुआ | पार्वती जी दुखित होकर अपनी सखी के पास पहुंचकर विलाप करने लगी | विलाप देख कर सखी ने पार्वतीजी की इच्छा जानकार कहा, देवी मैं तुम्हे ऐसी गुफा में तपस्या को ले चलूंगी जहाँ तुम्हे महाराजा हिमांचल भी न ढूंढ सकेंगे , ऐसा कह उमा सहेली सहित हिमालय की गहन गुफा में विलीन हो गई |
तब पिता हिमवान ने तुमको घर पर न पाकर सोचा की मेरी पुत्री को कोई दानव या किन्नर हरण करके ले गया है | मैंने नारदजी को वचन दिया था की मैं पुत्री का विवाह विष्णु जी के साथ करूँगा | हाय अब ये कैसे पूरा होगा ? ऐसा सोचकर चिंतावश मूर्छित हो गए | मूर्छा दूर होने के पश्चात् गिरिराज साथियों सहित घने जंगल में ढूढ़ने निकले | इसी दौरान गुफा में पार्वती जी अन्न जल त्याग कर बालू का लिंग बनाकर मेरी आराधना करती रहीं | उस समय पर भद्रपद मॉस की हस्त नक्षत्र युक्त तृतीया के दिन तुमने मेरा विधि विधान से पूजन किया तथा रात्रि को गीत गायन करते हुए जागरण किया | तुम्हारे उस महाव्रत के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा | मैं उसी स्थान पर आ गया , जहाँ तुम और तुम्हारी सखी दोनों थी | मैंने आकर तुमसे कहा मैं प्रसन्न हूँ | तब तुमने कहा की हे देव , यदि आप मुझसे प्रसन्न है तो आप महादेवजी ही मेरे पति हों | मैं तथास्तु कहकर कैलाश को आ गया | तुमने प्रभात होते ही मेरी उस बालू की प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर दिया | हे शुभे , तुमने वहां अपनी सखी सहित व्रत का परायण किया | इतने में तुम्हारे पिता हिमवान भी नदी तट पर आ पहुंचे और तुम्हे लगे लगा कर रोने लगे और बोले - बेटी तुम इस सिंह व्याघ्रदि युक्त जंगल में क्यों चली आई ? तुमने कहा हे पिता , मैंने पहले ही अपना शरीर शंकरजी को समर्पित कर दिया है किन्तु आपने इसके विपरीत कार्य किया इसलिए मैं वन को चली आई |
ऐसा सुनकर हिमवान ने तुमसे कहा की मैं तुम्हारी इक्छा के विरुद्ध यह कार्य नहीं करूँगा और तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर दिया | हे प्रिये ! उसी व्रत के प्रभाव से तुमको मेरा अर्धासन प्राप्त हुआ है |
हे देवी ! अब मैं तुम्हे बताता हूँ की इस व्रत का नाम हरितालिका क्यों पड़ा |
तुमको सखी हरण करके ले गयी थी , इसलिए हरतालिका नाम पड़ा | इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूं। भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेंगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।
कैलाश पर्वत के सुन्दर शिखर पर माता पार्वती जी ने श्री महादेव जी से पूछा हे - महेश्वर ! मुझ से आप वह गुप्त से गुप्त वार्ता कहिये जो सबके लिए सब धर्मों से भी सरल तथा महान फल देने वाली हो | हे नाथ ! यदि आप भलीभांति प्रस्सन है तो आप उसे मेरे सामने प्रकट कीजिये | हे जगत नाथ ! आप आदि, मध्य और अंत रहित हैं|
आपकी माया का कोई पार नहीं है | आपको मैंने किस भाँति प्राप्त किया है ? कौन से व्रत, तप या दान के पुण्य फल से आप मुझको वर रूप में मिले ?
श्री महादेव जी बोले - हे देवी ! यह सुन, मैं तेरे सम्मुख उस व्रत को कहता हूँ , जो परम गुप्त है, जैसे तारागणों में चन्द्रमा और ग्रहों में सूर्य , देवताओं में गंगा, वेदों में साम और इंद्रियों में मन श्रेष्ठ है | वैसे ही पुराण और वेद सबमें इसका वर्णन आया है| जिसके प्रभाव से तुमको मेरा आधा आसान प्राप्त हुआ है |
हे प्रिये ! उसी का में वर्णन करता हूँ सुनो - भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की हस्त नक्षत्र संयुक्त तृतीया के दिन इस व्रत का अनुष्ठान मात्र से सब पापों का नाश हो जाता है | तुमने हिमालय पर्वत पर इसी प्रकार का व्रत किया था , जो मैं तुम्हें सुनाता हूँ |
शंकर जी बोले आर्यावर्त में हिमालय नामक एक महान पर्वत है , जो गंगा की कल कल ध्वनि से शब्दायवान रहता है| हे पार्वती ! तुमने बाल्यकाल में उसी स्थान पर परम तप किया था | तुमने ग्रीष्म काल में बाहर चट्टानों पर आसन लगा के तप किया | वर्षा काल में पानी में तप किया | शीत काल में पानी में खड़े होकर मेरे ध्यान में सलग्न रहीं , इस प्रकार छः कालों में तपस्या करके भी जब मेरे दर्शन न मिले तब तुमने ऊर्ध्वमुख होकर केवल वायुसेवन की , फिर वृक्षों के शुके पत्ते खाकर इस शरीर को कमजोर किया |
तुम्हारे इस कष्ट को देखकर तुम्हारे पिता को बड़ी चिंता हुई और चिंतातुर होकर सोचने लगे कि मैं इस कन्या की किससे शादी करूँ | इसी समय महर्षि नारद उपस्थित हुए | राजा ने हर्ष के साथ नारद जी का स्वागत किया और उपस्थित होने का कारण बताने को कहा |
नारदजी ने कहा , राजन मैं भगवान् विष्णु का भेजा आया हूँ | मैं चाहता हूँ की आपकी सुन्दर कन्या को योग्य वर प्राप्त हो , बैकुंठ निवासी शेषशायी भगवान् ने आप की कन्या का वरण स्वीकार किया है | राजा हिमांचल ने कहा , मेरा सौभाग्य है जो मेरी कन्या को विष्णु जी ने स्वीकार किया है और में अवश्य ही उन्हें अपनी कन्या का वरदान करूँगा | यह सुनिश्चित हो जाने पर नारदजी बैकुंठ पहुंचकर श्री विष्णु भगवान् से पार्वती जी के विवाह का निश्चित होना सुनाया | इधर महाराज हिमांचल ने वन में पहुंचकर पार्वती जी से भगवान् विष्णु से विविआह निश्चित होने का समाचार दिया , ऐसा सुनते ही पार्वतीजी को बहुत दुःख हुआ | पार्वती जी दुखित होकर अपनी सखी के पास पहुंचकर विलाप करने लगी | विलाप देख कर सखी ने पार्वतीजी की इच्छा जानकार कहा, देवी मैं तुम्हे ऐसी गुफा में तपस्या को ले चलूंगी जहाँ तुम्हे महाराजा हिमांचल भी न ढूंढ सकेंगे , ऐसा कह उमा सहेली सहित हिमालय की गहन गुफा में विलीन हो गई |
तब पिता हिमवान ने तुमको घर पर न पाकर सोचा की मेरी पुत्री को कोई दानव या किन्नर हरण करके ले गया है | मैंने नारदजी को वचन दिया था की मैं पुत्री का विवाह विष्णु जी के साथ करूँगा | हाय अब ये कैसे पूरा होगा ? ऐसा सोचकर चिंतावश मूर्छित हो गए | मूर्छा दूर होने के पश्चात् गिरिराज साथियों सहित घने जंगल में ढूढ़ने निकले | इसी दौरान गुफा में पार्वती जी अन्न जल त्याग कर बालू का लिंग बनाकर मेरी आराधना करती रहीं | उस समय पर भद्रपद मॉस की हस्त नक्षत्र युक्त तृतीया के दिन तुमने मेरा विधि विधान से पूजन किया तथा रात्रि को गीत गायन करते हुए जागरण किया | तुम्हारे उस महाव्रत के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा | मैं उसी स्थान पर आ गया , जहाँ तुम और तुम्हारी सखी दोनों थी | मैंने आकर तुमसे कहा मैं प्रसन्न हूँ | तब तुमने कहा की हे देव , यदि आप मुझसे प्रसन्न है तो आप महादेवजी ही मेरे पति हों | मैं तथास्तु कहकर कैलाश को आ गया | तुमने प्रभात होते ही मेरी उस बालू की प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर दिया | हे शुभे , तुमने वहां अपनी सखी सहित व्रत का परायण किया | इतने में तुम्हारे पिता हिमवान भी नदी तट पर आ पहुंचे और तुम्हे लगे लगा कर रोने लगे और बोले - बेटी तुम इस सिंह व्याघ्रदि युक्त जंगल में क्यों चली आई ? तुमने कहा हे पिता , मैंने पहले ही अपना शरीर शंकरजी को समर्पित कर दिया है किन्तु आपने इसके विपरीत कार्य किया इसलिए मैं वन को चली आई |
ऐसा सुनकर हिमवान ने तुमसे कहा की मैं तुम्हारी इक्छा के विरुद्ध यह कार्य नहीं करूँगा और तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर दिया | हे प्रिये ! उसी व्रत के प्रभाव से तुमको मेरा अर्धासन प्राप्त हुआ है |
हे देवी ! अब मैं तुम्हे बताता हूँ की इस व्रत का नाम हरितालिका क्यों पड़ा |
तुमको सखी हरण करके ले गयी थी , इसलिए हरतालिका नाम पड़ा | इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूं। भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेंगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।
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